Sookta 11. ८ जेता माधुच्छन्दसः। इन्द्रः। अनुष्टुप्।
इन्द्रं॒ विश्वा॑ अवीवृधन्त् समु॒द्रव्य॑चसं॒ गिर॑: । र॒थीत॑मं र॒थीनां॒ वाजा॑नां॒ सत्प॑तिं॒ पति॑म् ॥१॥
इन्द्रम् । विश्वाः । अवीवृधन् । समुद्रऽव्यचसम् । गिरः । रथिऽतमम् । रथिनाम् । वाजानाम् । सत्ऽपतिम् । पतिम् ॥
इन्द्र शब्दसे ईश्वर व विजय करनेवाला पुरुषका उपदेश किया है | DSB p.122
इन्द्रम् । ईश्वर व विजय करनेवाला पुरुष
विश्वाः । all (in the world)
अवीवृधन् । encourage them, praise them
समुद्रऽव्यचसम् । The persons who fight the enemies in the seas
गिरः । All types of prayers or praises
रथिऽतमम् । - chariots filled with weapons
रथिनाम् । persons who fight in chariots (rathams)
वाजानाम् । in battles or battle like games
सत्ऽपतिम् । The true god who protects all, the brave persons who protect people
पतिम् ॥ The god who protects all, the brave persons who protect people
पहले मन्त्र में इन्द्र शब्द से ईश्वर वा विजय करनेवाले पुरुष का उपदेश किया है-
-हमारी ये (विश्वाः) सब
(गिरः) स्तुतियाँ
(समुद्रव्यचसम्) जो आकाश में अपनी व्यापकता से परिपूर्ण ईश्वर, वा जो नौका आदि पूरण सामग्री से शत्रुओं को जीतनेवाले मनुष्य
(रथीनाम्) जो बड़े-बड़े युद्धों में विजय कराने वा करनेवाले
(रथीतमम्) जिसमें पृथिवी आदि रथ अर्थात् सब क्रीड़ाओं के साधन, तथा जिसके युद्ध के साधन बड़े-बड़े रथ हैं, (वाजानाम्) अच्छी प्रकार जिनमें जय और पराजय प्राप्त होते हैं, उनके बीच
(सत्पतिम्) जो विनाशरहित प्रकृति आदि द्रव्यों का पालन करनेवाला ईश्वर, वा सत्पुरुषों की रक्षा करनेहारा मनुष्य (पतिम्) जो चराचर जगत् और प्रजा के स्वामी, वा सज्जनों की रक्षा करनेवाले और
(इन्द्रम्) विजय के देनेवाले परमेश्वर के, वा शत्रुओं को जीतनेवाले धर्मात्मा मनुष्य के
(अवीवृधन्) गुणानुवादों को नित्य बढ़ाती रहें॥
सब वेदवाणी परमेश्वरयुक्त सब में रहने सब जगह रमन करने सत्य स्वभाव तथा धर्मात्मा सज्जनों को विजय देनेवाले परमेश्वर और धर्म वा बल से दुष्ट मनुष्यों को जीतने तथा धर्मात्मा व सज्जन पुरुषों की रक्षा करनेवाले मानुष का प्रकाश करती हैं | इस प्रकार परमेश्वर वेदवाणी से सब मनुष्योंको आज्ञा देता है ||
Praise and encourage the Gods who control enemies of yours and similarly praise and encourage all brave fighters who fight with enemies of yours on land on chariots and on sea using ships with various hymns of prayer.
स॒ख्ये त॑ इन्द्र वा॒जिनो॒ मा भे॑म शवसस्पते । त्वाम॒भि प्र णो॑नुमो॒ जेता॑र॒मप॑रा जितम् ॥२॥
सख्ये । ते । इन्द्र । वाजिनः । मा । भेम । शवसः । पते । त्वाम् । अभि । प्र । नोनुमः । जेतारम् । अपराऽजितम् ॥
हे (शवसः) अनन्तबल वा सेनाबल के
(पते) पालन करनेहारे ईश्वर वा अध्यक्ष !
(अभिजेतारम्) प्रत्यक्ष शत्रुओं को जिताने वा जीतनेवाले
(अपराजितम्) जिसका पराजय कोई भी न कर सके
(त्वा) उस आप को
(वाजिनः) उत्तम विद्या वा बल से अपने शरीर के उत्तम बल वा समुदाय को जानते हुए
हम लोग (प्रणोनुमः) अच्छी प्रकार आप की वार-वार स्तुति करते हैं, जिससे
(इन्द्र) हे सब प्रजा वा सेना के स्वामी !
(ते) आप जगदीश्वर वा सभाध्यक्ष के साथ
(सख्ये) हम लोग मित्रभाव करके शत्रुओं वा दुष्टों से कभी
(मा भेम) भय न करें॥२॥
भावार्थ -इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है।
जो मनुष्य परमेश्वर की आज्ञा के पालने वा अपने धर्मानुष्ठान से परमात्मा तथा शूरवीर आदि मनुष्यों में मित्रभाव अर्थात् प्रीति रखते हैं, वे बलवाले होकर किसी मनुष्य से पराजय वा भय को प्राप्त कभी नहीं होते॥२॥
पू॒र्वीरिन्द्र॑स्य रा॒तयो॒ न वि द॑स्यन्त्यू॒तय॑: । यदी॒ वाज॑स्य॒ गोम॑तः स्तो॒तृभ्यो॒ मंह॑ते म॒घम् ॥३॥
पूर्वीः । इन्द्रस्य । रातयः । न । वि । दस्यन्ति । ऊतयः । यदि । वाजस्य । गोऽमतः । स्तोतृऽभ्यः । मंहते । मघम् ॥
(यदि) जो परमेश्वर वा सभा और सेना का स्वामी
(स्तोतृभ्यः) जो जगदीश्वर वा सृष्टि के गुणों की स्तुति करनेवाले धर्मात्मा विद्वान् मनुष्य हैं, उनके लिये
(वाजस्य) जिसमें सब सुख प्राप्त होते हैं, उस व्यवहार, तथा
(गोमतः) जिसमें उत्तम पृथिवी, गौ आदि पशु और वाणी आदि इन्द्रियाँ वर्त्तमान हैं, उसके सम्बन्धी
(मघम्) विद्या और सुवर्णादि धन को
(मंहते) देता है, तो इस
(इन्द्रस्य) परमेश्वर तथा सभा सेना के स्वामी की
(पूर्व्यः) सनातन प्राचीन
(रातयः) दानशक्ति तथा
(ऊतयः) रक्षा हैं, वे कभी
(न) नहीं
(विदस्यन्ति) नाश को प्राप्त होतीं, किन्तु नित्य प्रति वृद्धि ही को प्राप्त होती रहती हैं॥
भावार्थ - इस मन्त्र में भी श्लेषालङ्कार है।
जैसे ईश्वर वा राजा की इस संसार में दान और रक्षा निश्चल न्याययुक्त होती हैं, वैसे अन्य मनुष्यों को भी प्रजा के बीच में विद्या और निर्भयता का निरन्तर विस्तार करना चाहिये।
जो ईश्वर न होता तो यह जगत् कैसे उत्पन्न होता? तथा जो ईश्वर सब पदार्थों को उत्पन्न करके सब मनुष्यों के लिये नहीं देता तो मनुष्य लोग कैसे जी सकते? इससे सब कार्य्यों का उत्पन्न करने और सब सुखों का देनेवाला ईश्वर ही है, अन्य कोई नहीं, यह बात सब को माननी चाहिये॥
What God has given to people at the beginning will not decrease, if people make effort, increase their knowledge, distribute the knowledge and wealth and take care of one another.
पु॒रां भि॒न्दुर्युवा॑ क॒विरमि॑तौजा अजायत । इन्द्रो॒ विश्व॑स्य॒ कर्म॑णो ध॒र्ता व॒ज्री पु॑रुष्टु॒तः ॥४॥
पुराम् । भिन्दुः । युवा । कविः । अमितऽओजाः । अजायत । इन्द्रः । विश्वस्य । कर्मणः । धर्ता । वज्री । पुरुऽस्तुतः ॥
इन्द्र शब्द से सूर्य्य और सेनापति के गुणों का उपदेश किया है-
जो यह (अमितौजाः) अनन्त बल वा जलवाला person with unlimited strength (ojas)
(वज्री) जिसके सब पदार्थों को प्राप्त करानेवाले शस्त्रसमूह वा किरण हैं, और (he has all arms or devices to get what he wants to accomplish)
(पुराम्) मिले हुए शत्रुओं के नगरों वा पदार्थों का (the towns of enemies)
(भिन्दुः) अपने प्रताप वा ताप से नाश वा अलग-अलग करने (will make them into pieces)
(युवा) अपने गुणों से पदार्थों का मेल करने वा कराने तथा (can use his qualities to improve things)
(कविः) राजनीति विद्या वा दृश्य पदार्थों का अपने किरणों से प्रकाश करनेवाला (he can illuminate - make things clear)
(पुरुष्टुतः) बहुत विद्वान् वा गुणों से स्तुति करने योग्य (is praised by the wise people of the towns)
(इन्द्रः) सेनापति और सूर्य्यलोक
(विश्वस्य) सब जगत् के
(कर्मणः) कार्यों को
(धर्त्ता) अपने बल और आकर्षण गुण से धारण करनेवाला (bears the world or takes responsibility of sustaining the world)
(अजायत) उत्पन्न होता और हुआ है, वह सदा जगत् के व्यवहारों की सिद्धि का हेतु है॥ (was born or created)
भावार्थ -इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है।
जैसे ईश्वर का रचा और धारण किया हुआ यह सूर्य्यलोक अपने वज्ररूपी किरणों से सब मूर्तिमान् पदार्थों को अलग-अलग करने तथा बहुत से गुणों का हेतु और अपने आकर्षणरूप गुण से पृथिवी आदि लोकों का धारण करनेवाला है, वैसे ही सेनापति को उचित है कि शत्रुओं के बल का छेदन साम, दाम और दण्ड से शत्रुओं को छिन्न-भिन्न करके बहुत उत्तम गुणों को ग्रहण करता हुआ भूमि में अपने राज्य का पालन करे॥४॥
The sun created by the Lord illuminates all things on earth, attracts earth and also improves many things on the earth. In a similar way, the commanders have to help and sustain their kingdom and society by controlling enemies and sustaining right activities.
त्वं व॒लस्य॒ गोम॒तो ऽपा॑वरद्रिवो॒ बिल॑म् ।त्वां दे॒वा अबि॑भ्युषस् तु॒ज्यमा॑नास आविषुः ॥५॥
त्वम् । वलस्य । गोऽमतः । अप । अवः । अद्रिऽवः । बिलम् । त्वाम् । देवाः । अबिभ्युषः । तुज्यमानासः । आविषुः ॥
(अद्रिवः) जिसमें मेघ विद्यमान है, ऐसा जो सूर्य्यलोक है, वह - In his area, there are clouds
(गोमतः) जिसमें अपने किरण विद्यमान हैं उस - his rays
(अबिभ्युषः) भयरहित - without fear
(बलस्य) मेघ के - of the cloud
(बिलम्) जलसमूह को - water body
(अपावः) अलग-अलग कर देता है, separates
(त्वाम्) इस सूर्य्य को - this sun
(तुज्यमानासः) अपनी-अपनी कक्षाओं में भ्रमण करते हुए - travelling in their orbits
(देवाः) पृथिवी आदिलोक - various planets like the earth
(आविषुः) विशेष करके प्राप्त होते हैं॥
भावार्थ -जैसे सूर्य्यलोक अपनी किरणों से मेघ के कठिन-कठिन बद्दलों को छिन्न-भिन्न करके भूमि पर गिराता हुआ जल की वर्षा करता है, क्योंकि यह मेघ उसकी किरणों में ही स्थित रहता, तथा इसके चारों ओर आकर्षण अर्थात् खींचने के गुणों से पृथिवी आदि लोक अपनी-अपनी कक्षा में उत्तम-उत्तम नियम से घूमते हैं, इसी से समय के विभाग जो उत्तरायण, दक्षिणायन तथा ऋतु, मास, पक्ष, दिन, घड़ी, पल आदि हो जाते हैं, वैसे ही गुणवाला सेनापति होना उचित है॥
The clouds are in the space through which sun rays pass. Without any fear, the sun separates those massive clouds into water droplets. Similarly the Sun attracts the planets which are also in the space through which his rays pass. Similarly, the commander has to break enemies who surround him and take care of his subjects.
तवा॒हं शू॑र रा॒तिभि॒: प्रत्या॑यं॒ सिन्धु॑मा॒वद॑न् ।उपा॑तिष्ठन्त गिर्वणो वि॒दुष्टे॒ तस्य॑ का॒रव॑: ॥६॥
तव । अहम् । शूर । रातिऽभिः । प्रति । आयम् । सिन्धुम् । आऽवदन् । उप । अतिष्ठन्त । गिर्वणः । विदुः । ते । तस्य । कारवः ॥
मन्त्र में इन्द्र शब्द से शूरवीर के गुणों का उपदेश किया है-
-हे (शूर) धार्मिक घोर युद्ध से दुष्टों की निवृत्ति करने तथा विद्या बल पराक्रमवाले वीर पुरुष ! जो brave and skilled in fighting
(तव) आपके निर्भयता आदि दानों से मैं your
(सिन्धुम्) समुद्र के समान गम्भीर वा सुख देनेवाले आपको - calm like the ocean
(आवदन्) निरन्तर कहता हुआ - saying all the time
(प्रत्यायम्) प्रतीत करके प्राप्त होऊँ। हे
(गिर्वणः) मनुष्यों की स्तुतियों से सेवन करने योग्य ! जो who is fit to be praised
(ते) आपके
(तस्य) युद्ध राज्य वा शिल्पविद्या के सहायक
(कारवः) कारीगर हैं, वे भी आप को शूरवीर
(विदुः) जानते तथा
(उपातिष्ठन्त) समीपस्थ होकर उत्तम काम करते हैं, वे सब दिन सुखी रहते हैं॥
भावार्थ -इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है।
ईश्वर सब मनुष्यों को आज्ञा देता है कि-जैसे मनुष्यों को धार्मिक शूर प्रशंसनीय सभाध्यक्ष वा सेनापति मनुष्यों के अभयदान से निर्भयता को प्राप्त होकर जैसे समुद्र के गुणों को जानते हैं, वैसे ही उक्त पुरुष के आश्रय से अच्छी प्रकार जानकर उनको प्रसिद्ध करना चाहिये तथा दुःखों के निवारण से सब सुखों के लिये परस्पर विचार भी करना चाहिये॥
The God tells people to find and be near strong persons who can fight with enemies and calamities calmly like an ocean and support him. Both have to think together also to take care of enemies and calamities.
मा॒याभि॑रिन्द्र मा॒यिनं॒ त्वं शुष्ण॒मवा॑तिरः ।वि॒दुष्टे॒ तस्य॒ मेधि॑रा॒स् तेषां॒ श्रवां॒स्युत्ति॑र ॥७॥
मायाभिः । इन्द्र । मायिनम् । त्वम् । शुष्णम् । अव । अतिरः । विदुः । ते । तस्य । मेधिराः । तेषाम् । श्रवांसि । उत् । तिर ॥
मन्त्र में सूर्य्य के गुणों का उपदेश किया है-
-हे परमैश्वर्य्य को प्राप्त कराने तथा शत्रुओं की निवृत्ति करनेवाले शूरवीर मनुष्य ! - Commander
(त्वम्) तू उत्तम बुद्धि सेना तथा शरीर के बल से युक्त हो के you
(मायाभिः) विशेष बुद्धि के व्यवहारों से with special intellectual powers
(शुष्णम्) जो धर्मात्मा सज्जनों का चित्त व्याकुल करने - troubling
(मायिनम्) दुर्बुद्धि दुःख देनेवाला सब का शत्रु मनुष्य है, उसका - things created by maya
(अवातिर) पराजय किया कर, - defeat them
(तस्य) उसके मारने में
(मेधिराः) जो शस्त्रों को जानने तथा दुष्टों को मारने में अति निपुण मनुष्य हैं, वे - the persons who know how to kill enemies
(ते) तेरे संगम से सुखी और अन्नादि पदार्थों को प्राप्त हों,
(तेषाम्) उन धर्मात्मा पुरुषों के सहाय से शत्रुओं के बलों को -wth the help of the persons who know how to kill enemies
(उत्तिर) अच्छी प्रकार निवारण कर॥ - prevent
भावार्थ -बुद्धिमान् मनुष्यों को ईश्वर आज्ञा देता है कि-साम, दाम, दण्ड और भेद की युक्ति से दुष्ट और शत्रुजनों की निवृत्ति करके विद्या और चक्रवर्त्ति राज्य की यथावत् उन्नति करनी चाहिये। तथा जैसे इस संसार में कपटी, छली और दुष्ट पुरुष वृद्धि को प्राप्त न हों, वैसा उपाय निरन्तर करना चाहिये॥
In this world there are many cunning people who deceive others. The king or the leader has to take the help of many who are skilled at fighting with them and defeat them so that people can live peacefully and happily.
इन्द्र॒मीशा॑न॒मोज॑सा॒भि स्तोमा॑ अनूषत ।स॒हस्रं॒ यस्य॑ रा॒तय॑ उ॒त वा॒ सन्ति॒ भूय॑सीः ॥८॥
इन्द्रम् । ईशानम् । ओजसा । अभि । स्तोमाः । अनूषत । सहस्रम् । यस्य । रातयः । उत । वा । सन्ति । भूयसीः ॥
ईश्वर के गुणों का उपदेश किया है-
(यस्य) जिस जगदीश्वर के ये सब - whose
(स्तोमाः) स्तुतियों के समूह - the prayers or the sayings
(सहस्रम्) हजारों - in thousands
(उत वा) अथवा
(भूयसीः) अधिक - more
(रातयः) दान - wealth given, various useful things given
(सन्ति) हैं, वे उस
(ओजसा) अनन्त बल के साथ वर्त्तमान - with great strength and ability
(ईशानम्) कारण से सब जगत् को रचनेवाले तथा - the creator of the world
(इन्द्रम्) सकल ऐश्वर्य्ययुक्त जगदीश्वर के - the person with all the wealth
(अभ्यनूषत) सब प्रकार से गुणकीर्त्तन करते हैं॥ we are praying all his good qualities
भावार्थभाषाः -जिस दयालु ईश्वर ने प्राणियों के सुख के लिये जगत् में अनेक उत्तम-उत्तम पदार्थ अपने पराक्रम से उत्पन्न करके जीवों को दिये हैं, उसी ब्रह्म के स्तुतिविधायक सब धन्यवाद होते हैं, इसलिये सब मनुष्यों को उसी का आश्रय लेना चाहिये॥
All people have to seek the help of and support of the God who created many things for their benefit out of his capabilities. Thousands of mantras or statements that declare his deeds and qualities are available to understand his abilities and praise him for his abilities and deeds.
इस सू्क्त
इस सू्क्त में इन्द्र शब्द से ईश्वर की स्तुति, निर्भयता-सम्पादन, सूर्य्यलोक के कार्य्य, शूरवीर के गुणों का वर्णन, दुष्ट शत्रुओं का निवारण, प्रजा की रक्षा तथा ईश्वर के अनन्त सामर्थ्य से कारण करके जगत् की उत्पत्ति आदि के विधान से इस ग्यारहवें सूक्त की सङ्गति दशवें सूक्त के अर्थ के साथ जाननी चाहिये।
यह भी सूक्त सायणाचार्य्य आदि आर्य्यावर्त्तवासी तथा यूरोपदेशवासी विलसन साहब आदि ने विपरीत अर्थ के साथ वर्णन किया है॥
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Sookta 12. मेधातिथिः काण्वः। अग्निः,६ प्रथमपादस्य (निर्मथ्याहवनीयौ) अग्नी। गायत्री।
अ॒ग्निं दू॒तं वृ॑णीमहे॒ होता॑रं वि॒श्ववे॑दसम् । अ॒स्य य॒ज्ञस्य॑ सु॒क्रतु॑म् ॥१॥
अग्निम् । दूतम् । वृणीमहे । होतारम् । विश्वऽवेदसम् । अस्य । यज्ञस्य । सुऽक्रतुम् ॥
अ॒ग्निम॑ग्निं॒ हवी॑मभि॒: सदा॑ हवन्त वि॒श्पति॑म् । ह॒व्य॒वाहं॑ पुरुप्रि॒यम् ॥२॥
अग्निम्ऽअग्निम् । हवीमऽभिः । सदा । हवन्त । विश्पतिम् । हव्यऽवाहम् । पुरुऽप्रियम् ॥
अग्ने॑ दे॒वाँ इ॒हा व॑ह जज्ञा॒नो वृ॒क्तब॑र्हिषे । असि॒ होता॑ न॒ ईड्य॑: ॥३॥
अग्ने । देवान् । इह । आ । वह । जज्ञानः । वृक्तऽबर्हिषे । असि । होता । नः । ईड्यः ॥
ताँ उ॑श॒तो वि बो॑धय॒ यद॑ग्ने॒ यासि॑ दू॒त्य॑म् । दे॒वैरा स॑त्सि ब॒र्हिषि॑ ॥४॥
तान् । उशतः । वि । बोधय । यत् । अग्ने । यासि । दूत्यम् । देवैः । आ । सत्सि । बर्हिषि ॥
घृता॑हवन दीदिव॒: प्रति॑ ष्म॒ रिष॑तो दह । अग्ने॒ त्वं र॑क्ष॒स्विन॑: ॥५॥
घृतऽआहवन । दीदिऽवः । प्रति । स्म । रिषतः । दह । अग्ने । त्वम् । रक्षस्विनः ॥
अ॒ग्निना॒ग्निः समि॑ध्यते क॒विर्गृ॒हप॑ति॒र्युवा॑ । ह॒व्य॒वाड् जु॒ह्वा॑स्यः ॥६॥
अग्निना । अग्निः । सम् । इध्यते । कविः । गृहऽपतिः । युवा । हव्यऽवाट् । जुहुऽआस्यः ॥
क॒विम॒ग्निमुप॑ स्तुहि स॒त्यध॑र्माणमध्व॒रे । दे॒वम॑मीव॒चात॑नम् ॥७॥
कविम् । अग्निम् । उप । स्तुहि । सत्यऽधर्माणम् । अध्वरे । देवम् । अमीवऽचातनम् ॥
यस्त्वाम॑ग्ने ह॒विष्प॑तिर्दू॒तं दे॑व सप॒र्यति॑ । तस्य॑ स्म प्रावि॒ता भ॑व ॥८॥
यो अ॒ग्निं दे॒ववी॑तये ह॒विष्माँ॑ आ॒विवा॑सति । तस्मै॑ पावक मृळय ॥९॥
स न॑: पावक दीदि॒वो ऽग्ने॑ दे॒वाँ इ॒हा व॑ह । उप॑ य॒ज्ञं ह॒विश्च॑ नः ॥१०॥
स न॒: स्तवा॑न॒ आ भ॑र गाय॒त्रेण॒ नवी॑यसा । र॒यिं वी॒रव॑ती॒मिष॑म् ॥११॥
अग्ने॑ शु॒क्रेण॑ शो॒चिषा॒ विश्वा॑भिर्दे॒वहू॑तिभिः । इ॒मं स्तोमं॑ जुषस्व नः ॥१२॥
Sookta 13. १२ मेधातिथिः काण्वः।(आप्रीसूक्तं, अग्निरूपा देवता देवताः) १ इध्मः समिद्धोऽग्निर्वा, २ तनूनपात्, ३
नराशंसः, ४ इलः, ५ बर्हिः, ६ देवीर्द्वारः, ७ उषासानक्ता, ८ दैव्यो होतारौ प्रचेतसौ, ९ तिस्रो देव्यः
सरस्वतीळाभारत्यः, १० त्वष्टा, ११ वनस्पतिः, १२ स्वाहा कृतयः । गायत्री।
सुस॑मिद्धो न॒ आ व॑ह दे॒वाँ अ॑ग्ने ह॒विष्म॑ते । होत॑: पावक॒ यक्षि॑ च ॥१॥
मधु॑मन्तं तनूनपाद् य॒ज्ञं दे॒वेषु॑ नः कवे । अ॒द्या कृ॑णुहि वी॒तये॑ ॥२॥
नरा॒शंस॑मि॒ह प्रि॒यम॒स्मिन् य॒ज्ञ उप॑ ह्वये । मधु॑जिह्वं हवि॒ष्कृत॑म् ॥३॥
अग्ने॑ सु॒खत॑मे॒ रथे॑ दे॒वाँ ई॑ळि॒त आ व॑ह । असि॒ होता॒ मनु॑र्हितः ॥४॥
स्तृ॒णी॒त ब॒र्हिरा॑नु॒षग् घृ॒तपृ॑ष्ठं मनीषिणः । यत्रा॒मृत॑स्य॒ चक्ष॑णम् ॥५॥
वि श्र॑यन्तामृता॒वृधो॒ द्वारो॑ दे॒वीर॑स॒श्चत॑: । अ॒द्या नू॒नं च॒ यष्ट॑वे ॥६॥
नक्तो॒षासा॑ सु॒पेश॑सा॒ ऽस्मिन् य॒ज्ञ उप॑ ह्वये । इ॒दं नो॑ ब॒र्हिरा॒सदे॑ ॥७॥
ता सु॑जि॒ह्वा उप॑ ह्वये॒ होता॑रा॒ दैव्या॑ क॒वी । य॒ज्ञं नो॑ यक्षतामि॒मम् ॥८॥
इळा॒ सर॑स्वती म॒ही ति॒स्रो दे॒वीर्म॑यो॒भुव॑: । ब॒र्हिः सी॑दन्त्व॒स्रिध॑: ॥९॥
इ॒ह त्वष्टा॑रमग्रि॒यं वि॒श्वरू॑प॒मुप॑ ह्वये । अ॒स्माक॑मस्तु॒ केव॑लः ॥१०॥
अव॑ सृजा वनस्पते॒ देव॑ दे॒वेभ्यो॑ ह॒विः । प्र दा॒तुर॑स्तु॒ चेत॑नम् ॥११॥
स्वाहा॑ य॒ज्ञं कृ॑णोत॒नेन्द्रा॑य॒ यज्व॑नो गृ॒हे । तत्र॑ दे॒वाँ उप॑ ह्वये ॥१२॥
Sookta 14. १२ मेधातिथिः काण्वः। विश्वे देवाः (विश्वैर्देवैः सहितोऽग्निः), ३ इन्द्रवायुबृहस्पतिमित्राग्निपूषभगादित्यमरुद्गणाः, १० विश्वदेवाग्नीन्द्रवायुमित्रधामानि, ११ अग्निः। गायत्री।
ऐभि॑रग्ने॒ दुवो॒ गिरो॒ विश्वे॑भि॒: सोम॑पीतये । दे॒वेभि॑र्याहि॒ यक्षि॑ च ॥१॥
आ त्वा॒ कण्वा॑ अहूषत गृ॒णन्ति॑ विप्र ते॒ धिय॑: । दे॒वेभि॑रग्न॒ आ ग॑हि ॥२॥
इ॒न्द्र॒वा॒यू बृह॒स्पतिं॑ मि॒त्राग्निं पू॒षणं॒ भग॑म् । आ॒दि॒त्यान् मारु॑तं ग॒णम् ॥३॥
प्र वो॑ भ्रियन्त॒ इन्द॑वो मत्स॒रा मा॑दयि॒ष्णव॑: । द्र॒प्सा मध्व॑श्चमू॒षद॑: ॥४॥
ईळ॑ते॒ त्वाम॑व॒स्यव॒: कण्वा॑सो वृ॒क्तब॑र्हिषः । ह॒विष्म॑न्तो अरं॒कृत॑: ॥५॥
घृ॒तपृ॑ष्ठा मनो॒युजो॒ ये त्वा॒ वह॑न्ति॒ वह्न॑यः । आ दे॒वान्त्सोम॑पीतये ॥६॥
तान् यज॑त्राँ ऋता॒वृधो ऽग्ने॒ पत्नी॑वतस्कृधि । मध्व॑: सुजिह्व पायय ॥७॥
ये यज॑त्रा॒ य ईड्या॒स् ते ते॑ पिबन्तु जि॒ह्वया॑ । मधो॑रग्ने॒ वष॑ट्कृति ॥८॥
आकीं॒ सूर्य॑स्य रोच॒नाद् विश्वा॑न्दे॒वाँ उ॑ष॒र्बुध॑: । विप्रो॒ होते॒ह व॑क्षति ॥९॥
विश्वे॑भिः सो॒म्यं मध्वग्न॒ इन्द्रे॑ण वा॒युना॑ । पिबा॑ मि॒त्रस्य॒ धाम॑भिः ॥१०॥
त्वं होता॒ मनु॑र्हि॒तो ऽग्ने॑ य॒ज्ञेषु॑ सीदसि । सेमं नो॑ अध्व॒रं य॑ज ॥११॥
यु॒क्ष्वा ह्यरु॑षी॒ रथे॑ ह॒रितो॑ देव रो॒हित॑: । ताभि॑र्दे॒वाँ इ॒हा व॑ह ॥१२॥
Sookta 15. १२ मेधातिथिः काण्वः। (प्रतिदैवतं ऋतुसहितम्), १ इन्द्रः, २ मरुतः, ३ त्वष्टा, ४ अग्निः, ५ इन्द्रः, ६
मित्रावरुणौ, ७-१० द्रविणोदाः, ११ अश्विनौ, १२अग्निः। गायत्री।
इन्द्र॒ सोमं॒ पिब॑ ऋ॒तुना ऽऽ त्वा॑ विश॒न्त्विन्द॑वः । म॒त्स॒रास॒स्तदो॑कसः ॥१॥
मरु॑त॒: पिब॑त ऋ॒तुना॑ पो॒त्राद् य॒ज्ञं पु॑नीतन । यू॒यं हि ष्ठा सु॑दानवः ॥२॥
अ॒भि य॒ज्ञं गृ॑णीहि नो॒ ग्नावो॒ नेष्ट॒: पिब॑ ऋ॒तुना॑ । त्वं हि र॑त्न॒धा असि॑ ॥३॥
अग्ने॑ दे॒वाँ इ॒हा व॑ह सा॒दया॒ योनि॑षु त्रि॒षु । परि॑ भूष॒ पिब॑ ऋ॒तुना॑ ॥४॥
ब्राह्म॑णादिन्द्र॒ राध॑स॒: पिबा॒ सोम॑मृ॒तूँरनु॑ । तवेद्धि स॒ख्यमस्तृ॑तम् ॥५॥
यु॒वं दक्षं॑ धृतव्रत॒ मित्रा॑वरुण दू॒ळभ॑म् । ऋ॒तुना॑ य॒ज्ञमा॑शाथे ॥६॥
द्र॒वि॒णो॒दा द्रवि॑णसो॒ ग्राव॑हस्तासो अध्व॒रे । य॒ज्ञेषु॑ दे॒वमी॑ळते ॥७॥
द्र॒वि॒णो॒दा द॑दातु नो॒ वसू॑नि॒ यानि॑ शृण्वि॒रे । दे॒वेषु॒ ता व॑नामहे ॥८॥
द्र॒वि॒णो॒दाः पि॑पीषति जु॒होत॒ प्र च॑ तिष्ठत । ने॒ष्ट्रादृ॒तुभि॑रिष्यत ॥९॥
यत् त्वा॑ तु॒रीय॑मृ॒तुभि॒र्द्रवि॑णोदो॒ यजा॑महे । अध॑ स्मा नो द॒दिर्भ॑व ॥१०॥॥
अश्वि॑ना॒ पिब॑तं॒ मधु॒ दीद्य॑ग्नी शुचिव्रता । ऋ॒तुना॑ यज्ञवाहसा ॥११॥॥
गार्ह॑पत्येन सन्त्य ऋ॒तुना॑ यज्ञ॒नीर॑सि । दे॒वान् दे॑वय॒ते य॑ज ॥१२॥
https://vedicheritage.gov.in/samhitas/rigveda/shakala-samhita/rigveda-shakala-samhitas-mandal-01-sukta-015/
https://www.aurobindo.ru/workings/matherials/rigveda/
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