S115
कुत्स आङ्गिरसः। सूर्यः। त्रिष्टुप्।
चि॒त्रं दे॒वाना॒मुद॑गा॒दनी॑कं॒ चक्षु॑र्मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्या॒ग्नेः ।
आप्रा॒ द्यावा॑पृथि॒वी अ॒न्तरि॑क्षं॒ सूर्य॑ आ॒त्मा जग॑तस्त॒स्थुष॑श्च ॥१॥
सूर्यो॑ दे॒वीमु॒षसं॒ रोच॑मानां॒ मर्यो॒ न योषा॑म॒भ्ये॑ति प॒श्चात् ।
यत्रा॒ नरो॑ देव॒यन्तो॑ यु॒गानि॑ वितन्व॒ते प्रति॑ भ॒द्राय॑ भ॒द्रम् ॥२॥
भ॒द्रा अश्वा॑ ह॒रित॒: सूर्य॑स्य चि॒त्रा एत॑ग्वा अनु॒माद्या॑सः ।
न॒म॒स्यन्तो॑ दि॒व आ पृ॒ष्ठम॑स्थु॒: परि॒ द्यावा॑पृथि॒वी य॑न्ति स॒द्यः ॥३॥
तत्सूर्य॑स्य देव॒त्वं तन्म॑हि॒त्वं म॒ध्या कर्तो॒र्वित॑तं॒ सं ज॑भार ।
य॒देदयु॑क्त ह॒रित॑: स॒धस्था॒दाद्रात्री॒ वास॑स्तनुते सि॒मस्मै॑ ॥४॥
तन्मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्याभि॒चक्षे॒ सूर्यो॑ रू॒पं कृ॑णुते॒ द्योरु॒पस्थे॑ ।
अ॒न॒न्तम॒न्यद् रुश॑दस्य॒ पाज॑: कृ॒ष्णम॒न्यद्ध॒रित॒: सं भ॑रन्ति ॥५॥
अ॒द्या दे॑वा॒ उदि॑ता॒ सूर्य॑स्य॒ निरंह॑सः पिपृ॒ता निर॑व॒द्यात् ।
तन्नो॑ मि॒त्रो वरु॑णो मामहन्ता॒मदि॑ति॒: सिन्धु॑: पृथि॒वी उ॒त द्यौः ॥६॥
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चि॒त्रं दे॒वाना॒मुद॑गा॒दनी॑कं॒ चक्षु॑र्मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्या॒ग्नेः । आप्रा॒ द्यावा॑पृथि॒वी अ॒न्तरि॑क्षं॒ सूर्य॑ आ॒त्मा जग॑तस्त॒स्थुष॑श्च ॥१॥
हे मनुष्यो ! जो
(अनीकम्) नेत्र से नहीं देखने में आता तथा
(देवानाम्) विद्वान् और अच्छे-अच्छे पदार्थों वा
(मित्रस्य) मित्र के समान वर्त्तमान सूर्य वा
(वरुणस्य) आनन्द देनेवाले जल, चन्द्रलोक और अपनी व्याप्ति आदि पदार्थों वा
(अग्नेः) बिजुली आदि अग्नि वा और सब पदार्थों का
(चित्रम्) अद्भुत
(चक्षुः) दिखानेवाला है, वह ब्रह्म
(उदगात्) उत्कर्षता से प्राप्त है। जो जगदीश्वर
(सूर्य्यः) सूर्य्य के समान ज्ञान का प्रकाश करनेवाला विज्ञान से परिपूर्ण
(जगतः) जङ्गम (च) और
(तस्थुषः) स्थावर अर्थात् चराचर जगत् का
(आत्मा) अन्तर्यामी अर्थात् जिसने
(अन्तरिक्षम्) आकाश
(द्यावापृथिवी) प्रकाश और भूमिलोक को
(आ, अप्राः) अच्छे प्रकार परिपूर्ण किया अर्थात् उनमें आप भर रहा है, उसी परमात्मा की तुम लोग उपासना करो ॥
जो देखने योग्य परिमाणवाला पदार्थ है वह परमात्मा होने को योग्य नहीं। न कोई भी उस अव्यक्त सर्वशक्तिमान् जगदीश्वर के विना समस्त जगत् को उत्पन्न कर सकता है और न कोई सर्वव्यापक, सच्चिदानन्दस्वरूप, अनन्त, अन्तर्यामी, चराचर जगत् के आत्मा परमेश्वर के विना संसार के धारण करने, जीवों को पाप और पुण्यों को साक्षीपन और उनके अनुसार जीवों को सुख-दुःख रूप फल देने को योग्य है। न इस परमेश्वर की उपासना के विना धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के पाने को कोई जीव समर्थ होता है, इससे यही परमेश्वर उपासना करने योग्य इष्टदेव सबको मानना चाहिये ॥ १ ॥
सूर्यो॑ दे॒वीमु॒षसं॒ रोच॑मानां॒ मर्यो॒ न योषा॑म॒भ्ये॑ति प॒श्चात् ।
यत्रा॒ नरो॑ देव॒यन्तो॑ यु॒गानि॑ वितन्व॒ते प्रति॑ भ॒द्राय॑ भ॒द्रम् ॥२॥
हे मनुष्यो ! जिस ईश्वर ने उत्पन्न करके
(कक्षा) नियम में स्थापन किया यह
(सूर्य्यः) सूर्य्यमण्डल
(रोचमानाम्) रुचि कराने
(देवीम्) और सब पदार्थों को प्रकाशित करनेहारी
(उषसम्) प्रातःकाल की वेला को उसके होने के
(पश्चात्) पीछे जैसे
(मर्य्यः) पति
(योषाम्) अपनी स्त्री को प्राप्त हो
(न) वैसे
(अभ्येति) सब ओर से दौड़ा जाता है,
(यत्र) जिस विद्यमान सूर्य्य में
(देवयन्तः) मनोहर चाल-चलन से सुन्दर गणितविद्या को जानते-जनाते हुए
(नरः) ज्योतिष विद्या के भावों को दूसरों की समझ में पहुँचानेहारे ज्योतिषी जन
(युगानि) पाँच-पाँच संवत्सरों की गणना से ज्योतिष में युग वा सत्ययुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग को जान (भद्राय) उत्तम सुख के लिये
(भद्रम्) उस उत्तम सुख के (प्रति, वितन्वते) प्रति विस्तार करते हैं, उसी परमेश्वर को सबका उत्पन्न करनेहारा तुम लोग जानो ॥
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे विद्वानो ! तुम लोगों से जिस ईश्वर ने सूर्य्य को बनाकर प्रत्येक ब्रह्माण्ड में स्थापन किया, उसके आश्रय से गणित आदि समस्त व्यवहार सिद्ध होते हैं, वह ईश्वर क्यों न सेवन किया जाय ॥
भ॒द्रा अश्वा॑ ह॒रित॒: सूर्य॑स्य चि॒त्रा एत॑ग्वा अनु॒माद्या॑सः ।
न॒म॒स्यन्तो॑ दि॒व आ पृ॒ष्ठम॑स्थु॒: परि॒ द्यावा॑पृथि॒वी य॑न्ति स॒द्यः ॥३॥
(भद्राः) सुख के करानेहारे (अनुमाद्यासः) आनन्द करने के गुण से प्रशंसा के योग्य (नमस्यन्तः) सत्कार करते हुए विद्वान् जन जो (सूर्य्यस्य) सूर्य्यलोक की (चित्राः) चित्र विचित्र (एतग्वाः) इन प्रत्यक्ष पदार्थों को प्राप्त होती हुई (अश्वाः) बहुत व्याप्त होनेवाली किरणें (हरितः) दिशा और (द्यावापृथिवी) आकाश-भूमि को (सद्यः) शीघ्र (परि, यन्ति) सब ओर से प्राप्त होतीं (दिवः) तथा प्रकाशित करने योग्य पदार्थ के (पृष्ठम्) पिछले भाग पर (आ, अस्थुः) अच्छे प्रकार ठहरती हैं, उनको विद्या से उपकार में लाएँ ॥
मनुष्यों को योग्य है कि श्रेष्ठ पढ़ानेवाले शास्त्रवेत्ता विद्वानों को प्राप्त हो, उनका सत्कार कर, उनसे विद्या पढ़, गणित आदि क्रियाओं की चतुराई को ग्रहण कर, सूर्यसम्बन्धी व्यवहारों का अनुष्ठान कर कार्यसिद्धि करें ॥
तत्सूर्य॑स्य देव॒त्वं तन्म॑हि॒त्वं म॒ध्या कर्तो॒र्वित॑तं॒ सं ज॑भार ।
य॒देदयु॑क्त ह॒रित॑: स॒धस्था॒दाद्रात्री॒ वास॑स्तनुते सि॒मस्मै॑ ॥४॥
हे मनुष्यो ! (यदा) जब (तत्) वह पहिले मन्त्र में कहा हुआ (सूर्य्यस्य) सूर्यमण्डल के (मध्या) बीच में (विततम्) व्याप्त ब्रह्म इस सूर्य्य के (देवत्वम्) प्रकाश (महित्वम्) बड़प्पन (कर्त्तोः) और काम का (संजभार) संहार करता अर्थात् प्रलय समय सूर्य्य के समस्त व्यवहार को हर लेता (आत्) और फिर जब सृष्टि को उत्पन्न करता है तब सूर्य्य को (अयुक्त) युक्त अर्थात् उत्पन्न करता और नियत कक्षा में स्थापन करता है। सूर्य्य (सधस्थात्) एक स्थान से (हरितः) दिशाओं को अपनी किरणों से व्याप्त होकर (सिमस्मै) समस्त लोक के लिये (वासः) अपने निवास का (तनुते) विस्तार करता तथा जिस ब्रह्म के तत्त्व से (रात्री) रात्री होती है (तत्, इत्) उसी ब्रह्म की उपासना तुम लोग करो तथा उसी को जगत् का कर्त्ता जानो ॥
हे सज्जनो ! यद्यपि सूर्य्य आकर्षण से पृथिवी आदि पदार्थों का धारण करता है, पृथिवी आदि लोकों से बड़ा भी वर्त्तमान है। संसार का प्रकाश कर व्यवहार भी कराता है तो भी यह सूर्य्य परमेश्वर के उत्पादन, धारण और आकर्षण आदि गुणों के विना उत्पन्न होने, स्थिर रहने और पदार्थों का आकर्षण करने को समर्थ नहीं हो सकता। न इस ईश्वर के विना ऐसे-ऐसे लोक-लोकान्तरों की रचना, धारणा और इनके प्रलय करने को कोई समर्थ होता है ॥
तन्मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्याभि॒चक्षे॒ सूर्यो॑ रू॒पं कृ॑णुते॒ द्योरु॒पस्थे॑ ।
अ॒न॒न्तम॒न्यद् रुश॑दस्य॒ पाज॑: कृ॒ष्णम॒न्यद्ध॒रित॒: सं भ॑रन्ति ॥५॥
हे मनुष्यो ! तुम लोग जिसके सामर्थ्य से (मित्रस्य) प्राण और (वरुणस्य) उदान का (अभिचक्षे) सम्मुख दर्शन होने के लिये (द्यौः) प्रकाश के (उपस्थे) समीप में ठहरा हुआ (सूर्य्यः) सूर्य्यलोक अनेक प्रकार (रूपम्) प्रत्यक्ष देखने योग्य रूप को (कृणुते) प्रकट करता है। (अस्य) इस सूर्य के (अन्यत्) सबसे अलग (रुशत्) लाल आग के समान जलते हुए (पाजः) बल तथा रात्रि के (अन्यत्) अलग (कृष्णम्) काले-काले अन्धकार रूप को (हरितः) दिशा-विदिशा (सं, भरन्ति) धारण करती हैं (तत्) उस (अनन्तम्) देश, काल और वस्तु के विभाग से शून्य परब्रह्म का सेवन करो ॥
जिसके सामर्थ्य से रूप, दिन और रात्रि की प्राप्ति का निमित्त सूर्य श्वेत-कृष्ण रूप के विभाग से दिन-रात्रि को उत्पन्न करता है, उस अनन्त परमेश्वर को छोड़कर किसी और की उपासना मनुष्य नहीं करें, यह विद्वानों को निरन्तर उपदेश करना चाहिये ॥
अ॒द्या दे॑वा॒ उदि॑ता॒ सूर्य॑स्य॒ निरंह॑सः पिपृ॒ता निर॑व॒द्यात् ।
तन्नो॑ मि॒त्रो वरु॑णो मामहन्ता॒मदि॑ति॒: सिन्धु॑: पृथि॒वी उ॒त द्यौः ॥६॥
हे (देवाः) विद्वानो ! (सूर्य्यस्य) समस्त जगत् को उत्पन्न करनेवाले जगदीश्वर की उपासना से (उदिता) उदय अर्थात् सब प्रकार से उत्कर्ष की प्राप्ति में प्रकाशमान हुए तुम लोग (निः) निरन्तर (अवद्यात्) निन्दित (अंहसः) पाप आदि कर्म से (निष्पिपृत) निर्गत होओ अर्थात् अपने आत्मा, मन और शरीर आदि को दूर रक्खो तथा जिसको (मित्रः) प्राण (वरुणः) उदान (अदितिः) अन्तरिक्ष (सिन्धुः) समुद्र (पृथिवी) पृथिवी (उत) और (द्यौः) प्रकाश आदि पदार्थ सिद्ध करते हैं (तत्) वह वस्तु वा कर्म (नः) हम लोगों को सुख देता है, उसको तुम लोग (अद्य) आज (मामहन्ताम्) बार-बार प्रशंसित करो ॥ ६ ॥
मनुष्यों को चाहिये कि पाप से दूर रह धर्म का आचरण और जगदीश्वर की उपासना कर शान्ति के साथ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की परिपूर्ण सिद्धि करें ॥
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