Friday, November 19, 2021

1M - S 1-10. Rigveda Suktams - Mandala 1 - 1 to 10

Writing was started on 27 October 2021 


https://vedicheritage.gov.in/samhitas/rigveda/shakala-samhita/mandal-01/  

Sookta 1

http://www.onlineved.com/rig-ved/?language=1&commentrator=3

I am trying to read and give simple and straight forward meaning of mantras based on Dayananda Saraswati's veda bhashyam in sanskrit and hindi and with  support of  translations of the same. The meanings of words were given by Swami Dayananda Saraswati in sanskrit and hindi.  Later I shall add Sayanacharya's commentary also.


Sookta 1. ९ mantras. मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः । अग्निः। गायत्री।


1. अ॒ग्निमी॑ळे पु॒रोहि॑तं य॒ज्ञस्य॑ दे॒वमृ॒त्विज॑म्। होता॑रं रत्न॒धात॑मम्॥१॥

अग्निम् । ईळे । पुरःऽहितम् । यज्ञस्य । देवम् । ऋत्विजम् । होतारम् । रत्नऽधातमम् ॥


यहाँ प्रथम मन्त्र में अग्नि शब्द करके ईश्वर ने अपना और भौतिक अर्थ का उपदेश किया है।


हम लोग 

(यज्ञस्य) विद्वानों के सत्कार सङ्गम महिमा और कर्म के 

(होतारं) देने तथा ग्रहण करनेवाले 

(पुरोहितम्) उत्पत्ति के समय से पहिले परमाणु आदि सृष्टि के धारण करने और 

(ऋत्विज्ञं) बारंबार उत्पत्ति के समय में स्थूल सृष्टि के रचनेवाले तथा ऋतु-ऋतु में उपासना करने योग्य 

(रत्नधातमम्) और निश्चय करके मनोहर पृथिवी वा सुवर्ण आदि रत्नों के धारण करने वा 

(देवम्) देने तथा सब पदार्थों के प्रकाश करनेवाले परमेश्वर की 

(ईळे) स्तुति करते हैं। तथा उपकार के लिये हम लोग 

(यज्ञस्य) विद्यादि दान और शिल्पक्रियाओं से उत्पन्न करने योग्य पदार्थों के 

(होतारं) देनेहारे तथा 

(पुरोहितम्) उन पदार्थों के उत्पन्न करने के समय से पूर्व भी छेदन धारण और आकर्षण आदि गुणों के धारण करनेवाले 

(ऋत्विजम्) शिल्पविद्या साधनों के हेतु 

(रत्नधातमम्) अच्छे-अच्छे सुवर्ण आदि रत्नों के धारण कराने तथा 

(देवम्) युद्धादिकों में कलायुक्त शस्त्रों से विजय करानेहारे भौतिक अग्नि की 

(ईळे) बारंबार इच्छा करते हैं।


भावार्थ 


इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार से दो अर्थों का ग्रहण होता है। 

पिता के समान कृपाकारक परमेश्वर सब जीवों के हित और सब विद्याओं की प्राप्ति के लिये कल्प-कल्प की आदि में वेद का उपदेश करता है। जैसे पिता वा अध्यापक अपने शिष्य वा पुत्र को शिक्षा करता है कि तू ऐसा कर वा ऐसा वचन कह, सत्य वचन बोल, इत्यादि शिक्षा को सुनकर बालक वा शिष्य भी कहता है कि सत्य बोलूँगा, पिता और आचार्य्य की सेवा करूँगा, झूठ न कहूँगा, इस प्रकार जैसे परस्पर शिक्षक लोग शिष्य वा लड़कों को उपदेश करते हैं, वैसे ही अग्निमीळे० इत्यादि वेदमन्त्रों में भी जानना चाहिये। क्योंकि ईश्वर ने वेद सब जीवों के उत्तम सुख के लिये प्रकट किया है। इसी वेद के उपदेश का परोपकार फल होने से अग्निमीळे० इस मन्त्र में ईडे यह उत्तम पुरुष का प्रयोग भी है। 

(अग्निमीळे०) इस मन्त्र में परमार्थ और व्यवहारविद्या की सिद्धि के लिये अग्नि शब्द करके परमेश्वर और भौतिक ये दोनों अर्थ लिये जाते हैं। जो पहिले समय में आर्य लोगों ने अश्वविद्या के नाम से शीघ्र गमन का हेतु शिल्पविद्या आविष्कृत की थी, वह अग्निविद्या की ही उन्नति थी। परमेश्वर के आप ही आप प्रकाशमान सब का प्रकाशक और अनन्त ज्ञानवान् होने से, तथा भौतिक अग्नि के रूप दाह प्रकाश वेग छेदन आदि गुण और शिल्पविद्या के मुख्य साधक होने से अग्नि शब्द का प्रथम ग्रहण किया है ॥१॥


पु॒रोहि॑तं The person who is in the form of atoms before the creation. The source material for creation.

त्विज॑म् At the time of creation, the person who makes the initial structure of living and material things

य॒ज्ञस्य॑ दे॒वम - The person who gives benefits and takes the offerings in the yajnas. the projects of living beings.

दे॒वम The person who gives and illuminates all things

होता॑रं - The giver and receiver

रत्न॒धात॑मम् - The source of material wealth of the universe.

I glorify the God (fire power) the Supreme Leader, Supporter of the universe, the Illuminator of all activity in the universe, the only object of adoration in all seasons and the most Bounteous and the Greatest Bestower of  wealth. 


The root (eed   ) means  to long eagerly or to adore. (Dict. to praise)

The word (dev) is derived from the root of the word (daan). Hence the meaning of dev is  Giver or  Illuminator.  

(Ratnadhaatamam): Most lavish dispenser of delightful riches. (Dict. Dhatumat : Rich or abounding in metals)


अ॒ग्निः पूर्वे॑भि॒र्ऋषि॑भि॒रीड्यो॒ नूत॑नैरु॒त। स दे॒वाँ एह व॑क्षति॥२॥

अग्निः । पूर्वेभिः । ऋषिऽभिः । ईड्यः । नूतनैः । उत । सः । देवान् । आ । इह । वक्षति ॥


उक्त अग्नि किन से स्तुति करने वा खोजने योग्य है, इसका उपदेश अगले मन्त्र में किया है-


यहाँ अग्नि शब्द के दो अर्थ करने में प्रमाण ये हैं कि-(इन्द्रं मित्रं०) इस ऋग्वेद के मन्त्र से यह जाना जाता है कि एक सद्ब्रह्म के इन्द्र आदि अनेक नाम हैं। तथा (तदेवाग्नि०) इस यजुर्वेद के मन्त्र से भी अग्नि आदि नामों करके सच्चिदानन्दादि लक्षणवाले ब्रह्म को जानना चाहिये। (ब्रह्म ह्य०) इत्यादि शतपथ ब्राह्मण के प्रमाणों से अग्नि शब्द ब्रह्म और आत्मा इन दो अर्थों का वाची है। (अयं वा०) इस प्रमाण में अग्नि शब्द से प्रजा शब्द करके भौतिक और प्रजापति शब्द से ईश्वर का ग्रहण होता है। (अग्नि०) इस प्रमाण से सत्याचरण के नियमों का जो यथावत् पालन करना है, सो ही व्रत कहाता है, और इस व्रत का पति परमेश्वर है। (त्रिभिः पवित्रैः०) इस ऋग्वेद के प्रमाण से ज्ञानवाले तथा सर्वज्ञ प्रकाश करनेवाले विशेषण से अग्नि शब्द करके ईश्वर का ग्रहण होता है।


भावार्थ 


जो मनुष्य सब विद्याओं को पढ़के औरों को पढ़ाते हैं तथा अपने उपदेश से सब का उपकार करनेवाले हैं वा हुए हैं वे पूर्व शब्द से, और जो कि अब पढ़नेवाले विद्याग्रहण के लिये अभ्यास करते हैं, वे नूतन शब्द से ग्रहण किये जाते हैं, क्योंकि जो मन्त्रों के अर्थों को जाने हुए धर्म और विद्या के प्रचार, अपने सत्य उपदेश से सब पर कृपा करनेवाले, निष्कपट पुरुषार्थी, धर्म की सिद्धि के लिये ईश्वर की उपासना करनेवाले और कार्य्यों की सिद्धि के लिये भौतिक अग्नि के गुणों को जानकर अपने कर्मों के सिद्ध करनेवाले होते हैं, वे सब पूर्ण विद्वान् शुभ गुण सहित होने पर ऋषि कहाते हैं, तथा प्राचीन और नवीन विद्वानों के तत्त्व जानने के लिये युक्ति प्रमाणों से सिद्ध तर्क और कारण वा कार्य्य जगत् में रहनेवाले जो प्राण हैं, वे भी ऋषि शब्द से गृहीत होते हैं। इन सब से ईश्वर स्तुति करने योग्य और भौतिक अग्नि अपने-अपने गुणों के साथ खोज करने योग्य है।


और जो सर्वज्ञ परमेश्वर ने पूर्व और वर्त्तमान अर्थात् त्रिकालस्थ ऋषियों को अपने सर्वज्ञपन से जान के इस मन्त्र में परमार्थ और व्यवहार ये दो विद्या दिखलाई हैं, इससे इसमें भूत वा भविष्य काल की बातों के कहने में कोई भी दोष नहीं आ सकता, क्योंकि वेद सर्वज्ञ परमेश्वर का वचन है। वह परमेश्वर उत्तम गुणों को तथा भौतिक अग्नि व्यवहार-कार्यों में संयुक्त किया हुआ उत्तम-उत्तम भोग के पदार्थों का देनेवाला होता है। पुराने की अपेक्षा एक पदार्थ से दूसरा नवीन और नवीन की अपेक्षा पहिला पुराना होता है। देखो, यही अर्थ इस मन्त्र का निरुक्तकार ने भी किया है कि-जो प्राकृत जन अर्थात् अज्ञानी लोगों ने प्रसिद्ध भौतिक अग्नि पाक बनाने आदि कार्य्यों में लिया है, वह इस मन्त्र में नहीं लेना, किन्तु सब का प्रकाश करनेहारा परमेश्वर और सब विद्याओं का हेतु, जिसका नाम विद्युत् है, वही भौतिक अग्नि यहाँ अग्नि शब्द से कहा गया है।


इस मन्त्र का अर्थ नवीन भाष्यकारों ने कुछ का कुछ ही कर दिया है, जैसे सायणाचार्य ने लिखा है कि-(पुरातनैः०) प्राचीन भृगु, अङ्गिरा आदियों और नवीन अर्थात् हम लोगों को अग्नि की स्तुति करना उचित है। वह देवों को हवि अर्थात् होम में चढ़े हुए पदार्थ उनके खाने के लिये पहुँचाता है। ऐसा ही व्याख्यान यूरोपखण्डवासी और आर्यावर्त्त के नवीन लोगों ने अङ्ग्रेजी भाषा में किया है, तथा कल्पित ग्रन्थों में अब भी होता है। सो यह बड़े आश्चर्य की बात है, जो ईश्वर के प्रकाशित अनादि वेद का ऐसा व्याख्यान, जिसका क्षुद्र आशय और निरुक्त शतपथ आदि सत्य ग्रन्थों से विरुद्ध होवे, वह सत्य कैसे हो सकता है ॥२॥


The  God (The God with the qualities of fire)  should be adored and approached by by both  experienced sages (rishis)  and new students. That (he) God will provide from all sides virtues like learning and wisdom, perfectly healthy body etc. (God should be approached by all for getting prosperity.)


ईड्यः : fit to be approached (fit for praying and requesting to provide)

व॑क्षति  provides (Dict. 1. To increase 2. to be powerful 3. to accumulate)


अ॒ग्निना॑ र॒यिम॑श्नव॒त् पोष॑मे॒व दि॒वेदि॑वे। य॒शसं॑ वी॒रव॑त्तमम्॥३॥

अग्निना । रयिम् । अश्नवत् । पोषम् । एव । दिवेऽदिवे ।

यशसम् । वीरवत्ऽतमम् ॥


अब परमेश्वर की उपासना और भौतिक अग्नि के उपकार से क्या-क्या फल प्राप्त होता है, सो अगले मन्त्र से उपदेश किया है-

 

निरुक्तकार यास्कमुनि जी ने भी ईश्वर और भौतिक पक्षों को अग्नि शब्द की भिन्न-भिन्न व्याख्या करके सिद्ध किया है, सो संस्कृत में यथावत् देख लेना चाहिये, परन्तु सुगमता के लिये कुछ संक्षेप से यहाँ भी कहते हैं-यास्कमुनिजी ने स्थौलाष्ठीवि ऋषि के मत से अग्नि शब्द का अग्रणी=सब से उत्तम अर्थ किया है अर्थात् जिसका सब यज्ञों में पहिले प्रतिपादन होता है, वह सब से उत्तम ही है। इस कारण अग्नि शब्द से ईश्वर तथा दाहगुणवाला भौतिक अग्नि इन दो ही अर्थों का ग्रहण होता है। (प्रशासितारं० एतमे०) मनुजी के इन दो श्लोकों में भी परमेश्वर के अग्नि आदि नाम प्रसिद्ध हैं। (ईळे०) इस ऋग्वेद के प्रमाण से भी उस अनन्त विद्यावाले और चेतनस्वरूप आदि गुणों से युक्त परमेश्वर का ग्रहण होता है। अब भौतिक अर्थ के ग्रहण में प्रमाण दिखलाते हैं-(यदश्वं०) इत्यादि शतपथ ब्राह्मण के प्रमाणों से अग्नि शब्द करके भौतिक अग्नि का ग्रहण होता है। यह अग्नि बैल के समान सब देशदेशान्तरों में पहुँचानेवाला होने के कारण वृष और अश्व भी कहाता है, क्योंकि वह कलायन्त्रों के द्वारा प्रेरित होकर देवों=शिल्पविद्या के जाननेवाले विद्वान् लोगों के विमान आदि यानों को वेग से दूर-दूर देशों में पहुँचाता है।


(तूर्णि०) इस प्रमाण से भी भौतिक अग्नि का ग्रहण है, क्योंकि वह उक्त शीघ्रता आदि हेतुओं से हव्यवाट् और तूर्णि भी कहाता है। (अग्निर्वै यो०) इत्यादिक और भी अनेक प्रमाणों से अश्व नाम करके भौतिक अग्नि का ग्रहण किया गया है। (वृषो०) जब कि इस भौतिक अग्नि को शिल्पविद्यावाले विद्वान् लोग यन्त्रकलाओं से सवारियों में प्रदीप्त करके युक्त करते हैं, तब (देववाहनः) उन सवारियों में बैठे हुए विद्वान् लोगों को देशान्तर में बैलों वा घोड़ों के समान शीघ्र पहुँचानेवाला होता है। उस वेगादि गुणवाले अश्वरूप अग्नि के गुणों को (हविष्मन्तः) हवियुक्त मनुष्य कार्यसिद्धि के लिये (ईळते) खोजते हैं। इस प्रमाण से भी भौतिक अग्नि का ग्रहण है ॥

भावार्थ 

इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार से दो अर्थों का ग्रहण है। 

ईश्वर की आज्ञा में रहने तथा शिल्पविद्यासम्बन्धी कार्य्यों की सिद्धि के लिये भौतिक अग्नि को सिद्ध करनेवाले मनुष्यों को अक्षय अर्थात् जिसका कभी नाश नहीं होता, ऐसा धन प्राप्त होता है, तथा मनुष्य लोग जिस धन से कीर्त्ति की वृद्धि और जिस धन को पाके वीर पुरुषों से युक्त होकर नाना सुखों से युक्त होते हैं, सब को उचित है कि उस धन को अवश्य प्राप्त करें ॥३॥



अग्निना । रयिम् । अश्नवत् । पोषम् । एव । दिवेऽदिवे ।

यशसम् । वीरवत्ऽतमम् ॥



(1) By fervent adoration of God (due to the grace of God),  a person obtains from Him day by day all things that are essential for his living and additional wealth. Also he will get fame and will be desired by brave and courageous people.  

पोष॑मे॒  (Dict. poshah: Nourishment)

दि॒वेदि॑वे dive dive -  day by day (Dict. Diva - by day)


अग्ने॒ यं य॒ज्ञम॑ध्व॒रं वि॒श्वत॑: परि॒भूरसि॑। स इद् दे॒वेषु॑ गच्छति॥४॥

अग्ने । यम् । यज्ञम् । अध्वरम् । विश्वतः । परिऽभूः । असि ।

सः । इत् । देवेषु । गच्छति ॥

उक्त भौतिक अग्नि और परमेश्वर किस प्रकार के हैं, यह भेद अगले मन्त्र में जनाया है|


(अग्ने) हे परमेश्वर! आप 

(विश्वतः) सर्वत्र व्याप्त होकर 

(यम्) जिस 

(अध्वरम्) हिंसा आदि दोषरहित 

(यज्ञम्) विद्या आदि पदार्थों के दानरूप यज्ञ को 

(विश्वतः) सर्वत्र व्याप्त होकर 

(परिभूः) सब प्रकार से पालन करनेवाले 

(असि) हैं, 

(स इत्) वही यज्ञ 

(देवेषु) विद्वानों के बीच में 

(गच्छति) फैलके जगत् को सुख प्राप्त करता है। तथा जो यह 

(अग्ने) भौतिक अग्नि 

(यम्) जिस 

(अध्वरम्) विनाश आदि दोषों से रहित 

(यज्ञम्) शिल्पविद्यामय यज्ञ को 

(विश्वतः) जल पृथिव्यादि पदार्थों के आश्रय से 

(परिभूः) सब प्रकार के पदार्थों में व्याप्त होकर सिद्ध करनेवाला है, 

(स इत्) वही यज्ञ 

(देवेषु) अच्छे-अच्छे पदार्थों में 

(गच्छति) प्राप्त होकर सब को लाभकारी होता है ॥४॥


भावार्थ


इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। 

जिस कारण व्यापक परमेश्वर अपनी सत्ता से पूर्वोक्त यज्ञ की निरन्तर रक्षा करता है, इसीसे वह अच्छे-अच्छे गुणों को देने का हेतु होता है। 

इसी प्रकार ईश्वर ने दिव्य गुणयुक्त अग्नि भी रचा है कि जो उत्तम शिल्पविद्या का उत्पन्न करने वाला है। उन गुणों को केवल धार्मिक उद्योगी और विद्वान् मनुष्य ही प्राप्त होने के योग्य होता है ॥४॥


अग्ने । यम् । यज्ञम् । अध्वरम् । विश्वतः । परिऽभूः । असि ।

सः । इत् । देवेषु । गच्छति ॥

O   Agne, You protect from all sides the non-violent Yajna (sacrifice).  These righteous works are done by Devas, who do good for all. 

 

अ॒ग्निर्होता॑ क॒विक्र॑तुः स॒त्यश्चि॒त्रश्र॑वस्तमः। दे॒वो दे॒वेभि॒रा ग॑मत्॥५॥

अग्निः । होता । कविऽक्रतुः । सत्यः । चित्रश्रवःऽतमः ।

देवः । देवेभिः । आ । गमत् ॥


फिर भी परमेश्वर और भौतिक अग्नि किस प्रकार के हैं, सो अगले मन्त्र में उपदेश किया है-

जो (सत्यः) अविनाशी 

(देवः) आप से आप प्रकाशमान 

(कविक्रतुः) सर्वज्ञ है, जिसने परमाणु आदि पदार्थ और उनके उत्तम-उत्तम गुण रचके दिखलाये हैं, जो सब विद्यायुक्त वेद का उपदेश करता है, और जिससे परमाणु आदि पदार्थों करके सृष्टि के उत्तम पदार्थों का दर्शन होता है, वही कवि अर्थात् सर्वज्ञ ईश्वर है। तथा भौतिक अग्नि भी स्थूल और सूक्ष्म पदार्थों से कलायुक्त होकर देशदेशान्तर में गमन करानेवाला दिखलाया है। 

(चित्रश्रवस्तमः) जिसका अति आश्चर्यरूपी श्रवण है, वह परमेश्वर 

(देवेभिः) विद्वानों के साथ समागम करने से 

(आगमत्) प्राप्त होता है। 

तथा जो (सत्यः) श्रेष्ठ विद्वानों का हित अर्थात् उनके लिये सुखरूप 

(देवः) उत्तम गुणों का प्रकाश करनेवाला 

(कविक्रतुः) सब जगत् को जानने और रचनेहारा परमात्मा और जो भौतिक अग्नि सब पृथिवी आदि पदार्थों के साथ व्यापक और शिल्पविद्या का मुख्य हेतु 

(चित्रश्रवस्तमः) जिसको अद्भुत अर्थात् अति आश्चर्य्यरूप सुनते हैं, वह दिव्य गुणों के साथ 

(आगमत्) जाना जाता है ॥५॥


भावार्थ 


इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। 

सब का आधार, सर्वज्ञ, सब का रचनेवाला, विनाशरहित, अनन्त शक्तिमान् और सब का प्रकाशक आदि गुण हेतुओं के पाये जाने से अग्नि शब्द करके परमेश्वर, और आकर्षणादि गुणों से मूर्त्तिमान् पदार्थों का धारण करनेहारादि गुणों के होने से भौतिक अग्नि का भी ग्रहण होता है। सिवाय इसके मनुष्यों को यह भी जानना उचित है कि विद्वानों के समागम और संसारी पदार्थों को उनके गुणसहित विचारने से परम दयालु परमेश्वर अनन्त सुखदाता और भौतिक अग्नि शिल्पविद्या का सिद्ध करनेवाला होता है।

अग्निः । होता । कविऽक्रतुः । सत्यः । चित्रश्रवःऽतमः ।

देवः । देवेभिः । आ । गमत् ॥

क॒विक्र॑तुः Who knows every thing. (Dict. kavih: A thinker, a sage, a poet, a wiseman)

स॒त्य : He is there always without destruction

श्चि॒त्रश्र॑वस्तमः He has surprising hearing ability

 दे॒वेभि॒ : In learning from knowledgeable persons

आग॑मत्; Will come. Will be understood.

Agni, the God, who is indestructible with great hearing ability, can be approached and  understood by learning from persons with experience of realizing God and his creation.


यद॒ङ्ग दा॒शुषे॒ त्वमग्ने॑ भ॒द्रं क॑रि॒ष्यसि॑। तवेत् तत् स॒त्यम॑ङ्गिरः॥६॥

यत् । अङ्ग । दाशुषे । त्वम् । अग्ने । भद्रम् । करिष्यसि ।

तव । इत् । तत् । सत्यम् । अङ्गिरः ॥


अब अग्नि शब्द से ईश्वर का उपदेश अगले मन्त्र में किया है|

हे (अङ्गिरः) ब्रह्माण्ड के अङ्ग पृथिवी आदि पदार्थों को प्राणरूप और शरीर के अङ्गों को अन्तर्यामीरूप से रसरूप होकर रक्षा करनेवाले हे 

(अङ्ग) सब के मित्र 

(अग्ने) परमेश्वर! 

(यत्) जिस हेतु से आप 

(दाशुषे) निर्लोभता से उत्तम-उत्तम पदार्थों के दान करनेवाले मनुष्य के लिये 

(भद्रम्) कल्याण, जो कि शिष्ट विद्वानों के योग्य है, उसको 

(करिष्यसि) करते हैं, सो यह 

(तवेत्) आप ही का 

(सत्यम्) सत्यव्रत=शील है ॥६॥


भावार्थ 


जो न्याय, दया, कल्याण और सब का मित्रभाव करनेवाला परमेश्वर है, उसी की उपासना करके जीव इस लोक और मोक्ष के सुख को प्राप्त होता है, क्योंकि इस प्रकार सुख देने का स्वभाव और सामर्थ्य केवल परमेश्वर का है, दूसरे का नहीं। जैसे शरीरधारी अपने शरीर को धारण करता है, वैसे ही परमेश्वर सब संसार को धारण करता है, और इसी से इस संसार की यथावत् रक्षा और स्थिति होती है ॥६॥

 


यत् । अङ्ग । दाशुषे । त्वम् । अग्ने । भद्रम् । करिष्यसि ।

तव । इत् । तत् । सत्यम् । अङ्गिरः ॥

अ॒ङ्ग  Friend of every body

दा॒शुषे॒  to your daasas, people who serve you and your creation

स॒त्य True behaviour

अ॒ङ्गिरः The person who created all angas of the universe

O Agne, you are friend of every body. You only created all parts of the universe. Your true nature is helping every body who provides service to you and your creation (others in the creation).


उप॑ त्वाग्ने दि॒वेदि॑वे॒ दोषा॑वस्तर्धि॒या व॒यम्। नमो॒ भर॑न्त॒ एम॑सि॥७॥

उप । त्वा । अग्ने । दिवेऽदिवे । दोषाऽवस्तः । धिया । वयम् ।

नमः । भरन्तः । आ । इमसि ॥

उक्त परमेश्वर कैसे उपासना करके प्राप्त होने के योग्य है, इसका विधान अगले मन्त्र में किया है॥

(अग्ने) हे सब के उपासना करने योग्य परमेश्वर ! 

(वयम्) हम लोग 

(धिया) अपनी बुद्धि और कर्मों से 

(दिवेदिवे) अनेक प्रकार के विज्ञान होने के लिये 

(दोषावस्तः) रात्रिदिन में निरन्तर 

(त्वा) आपकी 

(भरन्तः) उपासना को धारण और 

(नमः) नमस्कार आदि करते हुए 

(उपैमसि) आपके शरण को प्राप्त होते हैं॥७॥


भावार्थ 


हे सब को देखने और सब में व्याप्त होनेवाले उपासना के योग्य परमेश्वर ! हम लोग सब कामों के करने में एक क्षण भी आपको नहीं भूलते, इसी से हम लोगों को अधर्म करने में कभी इच्छा भी नहीं होती, क्योंकि जो सर्वज्ञ सब का साक्षी परमेश्वर है, वह हमारे सब कामों को देखता है, इस निश्चय से॥७॥



उप । त्वा । अग्ने । दिवेऽदिवे । दोषाऽवस्तः । धिया । वयम् ।

नमः । भरन्तः । आ । इमसि ॥


उप॑ एम॑सि We desire your support (sharan)

दोषा॑वस्त In the night (Dict. Dosha: at night)

र्धि॒या -  With our acts according to our intellect and understanding

भर॑न्त॒  - engaging in prayer with salutations (नमो॒)


O Agne, every day and night we pray to you with our intellect and understanding and salute you.


राज॑न्तमध्व॒राणां॑ गो॒पामृ॒तस्य॒ दीदि॑विम्। वर्ध॑मानं॒ स्वे दमे॑॥८॥


राजन्तम् । अध्वराणाम् । गोपाम् । ऋतस्य । दीदिविम् ।

वर्धमानम् । स्वे । दमे ॥


फिर भी वह परमेश्वर किस प्रकार का है, सो अगले मन्त्र में उपदेश किया है॥




हम लोग (स्वे) अपने 

(दमे) उस परम आनन्द पद में कि जिसमें बड़े-बड़े दुःखों से छूट कर मोक्ष सुख को प्राप्त हुए पुरुष रमण करते हैं, (वर्धमानम्) सब से बड़ा 

(राजन्तम्) प्रकाशस्वरूप 

(अध्वराणाम्) पूर्वोक्त यज्ञादि अच्छे-अच्छे कर्म धार्मिक मनुष्यों के 

(गोपाम्) रक्षक 

(ऋतस्य) सत्यविद्यायुक्त चारों वेदों और कार्य जगत् के अनादि कारण के 

(दीदिविम्) प्रकाश करनेवाले परमेश्वर को उपासना योग से प्राप्त होते हैं॥८॥


भावार्थ 


विनाश और अज्ञान आदि दोषरहित परमात्मा अपने अन्तर्यामिरूप से सब जीवों को सत्य का उपदेश तथा श्रेष्ठ विद्वान् और सब जगत् की रक्षा करता हुआ अपनी सत्ता और परम आनन्द में प्रवृत्त हो रहा है। उस परमेश्वर के उपासक हम भी आनन्दित, वृद्धियुक्त विज्ञानवान् होकर विज्ञान में विहार करते हुए परम आनन्दरूप विशेष फलों को प्राप्त होते हैं॥८॥



राजन्तम् । अध्वराणाम् । गोपाम् । ऋतस्य । दीदिविम् ।

वर्धमानम् । स्वे । दमे ॥


राज॑न्तम - shines

गो॒पामृ॒ - cows and earth

मृ॒तस्य॒  - Regular activities of the creation according to ritus.

दीदि॑विम् - makes one shine and makes things visible

वर्ध॑मानं॒  - growing (very big, bigger than every body)

स्वे - own

दमे॑ - power of controlling

The god, through his own power (which is very big) shines. makes all other shine and become visible. He only protects the universe and he only makes everything happen as per time.


स न॑: पि॒तेव॑ सू॒नवे ऽग्ने॑ सूपाय॒नो भ॑व। सच॑स्वा नः स्व॒स्तये॑॥९॥

सः । नः । पिताऽइव । सूनवे । अग्ने । सुऽउपायनः । भव ।

सचस्व । नः । स्वस्तये ॥


वह परमेश्वर किस के समान किनकी रक्षा करता है, सो अगले मन्त्र में उपदेश किया है।

हे (सः) उक्त गुणयुक्त 

(अग्ने) ज्ञानस्वरूप परमेश्वर ! 

(पितेव) जैसे पिता 

(सूनवे) अपने पुत्र के लिये उत्तम ज्ञान का देनेवाला होता है, वैसे ही आप 

(नः) हम लोगों के लिये 

(सूपायनः) शोभन ज्ञान, जो कि सब सुखों का साधक और उत्तम पदार्थों का प्राप्त करनेवाला है, उसके देनेवाले 

(भव) हूजिये तथा 

(नः) हम लोगों को 

(स्वस्तये) सब सुख के लिये 

(सचस्व) संयुक्त कीजिये॥९॥


भावार्थ 


इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। 

सब मनुष्यों को उत्तम प्रयत्न और ईश्वर की प्रार्थना इस प्रकार से करनी चाहिये कि-हे भगवन् ! जैसे पिता अपने पुत्रों को अच्छी प्रकार पालन करके और उत्तम-उत्तम शिक्षा देकर उनको शुभ गुण और श्रेष्ठ कर्म करने योग्य बना देता है, वैसे ही आप हम लोगों को शुभ गुण और शुभ कर्मों में युक्त सदैव कीजिये॥९॥


सः । नः । पिताऽइव । सूनवे । अग्ने । सुऽउपायनः । भव ।

सचस्व । नः । स्वस्तये ॥



सूपाय॒नो  - good ideas for benefit (provide us learning like a father does for his son)

नः us

सच॑स्वा - join us with

स्व॒स्तये॑ for our benefit/good

Oh Agni, Like a father educates and provides his son, you also help by giving all ideas for our benefit and progress.


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Sookta 2 ९ mantras मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः। १-३ वायुः, ४-६ इन्द्र-वायु, ७-९ मित्रा-वरुणौ। गायत्री।

वाय॒वा या॑हि दर्शते॒मे सोमा॒ अरं॑कृताः। तेषां॑ पाहि श्रु॒धी हव॑म्॥१॥

वायो इति । आ । याहि । दर्शत । इमे । सोमाः । अरम्ऽकृताः ।

तेषाम् । पाहि । श्रुधि । हवम् ॥

O Lord, all the objects of nature are made by you and are made accessible to all the creatures in the universe. We urge you to protect them for the benefit of all. 

 

वाय॑ उ॒क्थेभि॑र्जरन्ते॒ त्वामच्छा॑ जरि॒तार॑:। सु॒तसो॑मा अह॒र्विद॑:॥२॥

वायो इति । उक्थेभिः । जरन्ते । त्वाम् । अच्छ । जरितारः ।

सुतऽसोमाः । अहःऽविदः ॥

वाय॑  O God

अह॒र्विद॑: - to get knowledge

सु॒तसो॑मा - to get various herbs

जरि॒तार॑: - people who can praise and recite mantras

 उ॒क्थेभि॑ - given in the vedas

 त्वामच्छा॑ - to get your grace

र्जरन्ते॒ - pray


O God, to get your grace,  to get knowledge and to get all the herbs etc., scholars pray to you with the mantras given in the vedas.


वायो॒ तव॑ प्रपृञ्च॒ती धेना॑ जिगाति दा॒शुषे॑। उ॒रू॒ची सोम॑पीतये॥३॥

वायो इति । तव । प्रऽपृञ्चती । धेना । जिगाति । दाशुषे ।

उरूची । सोमऽपीतये ॥

वायो॒- O Parmeshwar

प्रपृञ्च॒ती - the explanations of various things

उ॒रू॒ची - the procedures that give the benefits

धेना॑ - various items explained in vedas

सोम॑पीतये - persons who make efforts to know about various useful items that can be used in liquid state

 दा॒शुषे॑ - teachers

जिगाति  - gets obtained


O Parameshwar, with things explained by you vedas, researchers and teachers get the benefits of various things made available by you in creation.


इन्द्र॑वायू इ॒मे सु॒ता उप॒ प्रयो॑भि॒रा ग॑तम्। इन्द॑वो वामु॒शन्ति॒ हि॥४॥

इन्द्रवायू इति । इमे । सुताः । उप । प्रयःऽभिः । आ । गतम् ।

इन्दवः । वाम् । उशन्ति । हि ॥

इ॒मे सु॒ता - Yajnas producing water

इन्द्र॑वायू - sun and air

उप॒ - near

आग॑तम् - come

इन्द॑वो - the actions of sun and air

मु॒शन्ति॒ - illuminate

प्रयो॑भि॒  - benefits

Sun and air come together and through their actions (action of sun rays in creating water vapour and action of air in carrying water above from seas and distributing all over the world) produce water from the skies and provide benefits to people.


वाय॒विन्द्र॑श्च चेतथः सु॒तानां॑ वाजिनीवसू। तावा या॑त॒मुप॑ द्र॒वत्॥५॥

वायो इति । इन्द्रः । च । चेतथः । सुतानाम् । वाजिनीवसू इति वाजिनीऽवसू ।

तौ । आ । यातम् । उप । द्रवत् ॥

वाय॒ - O God

इन्द्र॑श्च - Sun and air

 सु॒तानां॑ - All products created by you

चेतथः - they illuminate them and make visible to people

द्र॒वत् - Very quickly, fast

आया॑त॒मुप॑ - They go near the products


O God, Sun and Air make all things you created visible to people. They act on them make them more useful and appropriate.


वाय॒विन्द्र॑श्च सुन्व॒त आ या॑त॒मुप॑ निष्कृ॒तम्। म॒क्ष्वि१त्था धि॒या न॑रा॥६॥

वायो इति । इन्द्रः । च । सुन्वतः । आ । यातम् । उप । निःऽकृतम् ।

मक्षु । इत्था । धिया । नरा ॥

वाय॒ - Parameshwar

इन्द्र॑श्च - Sun and air

 म॒क्ष्वि१त्था -  chemicals that create, grow and destroy

सुन्व॒त - produce (quickly)

न॑रा - people in the world

धि॒या - by actions (karma)

 निष्कृ॒तम् - result of actions (karma phalam)

आया॑त॒मुप॑ - obtain

O Parameshwar, sun and air produce many chemicals that create, grow and destroy many useful things. People in the world get those things as per their actions and results of actions.


मि॒त्रं हु॑वे पू॒तद॑क्षं॒ वरु॑णं च रि॒शाद॑सम्। धियं॑ घृ॒ताचीं॒ साध॑न्ता॥७॥

मित्रम् । हुवे । पूतऽदक्षम् । वरुणम् । च । रिशादसम् ।

धियम् । घृताचीम् । साधन्ता ॥

पू॒तद॑क्षं॒ - Can give all pleasant feelings and conditions


मि॒त्रं - refers to surya


रि॒शाद॑सम् - can cure body diseases


वरु॑णं च - the air we breathe and that goes inside and the air that goes out of the body


हु॑वे - happens


 धियं॑ घृ॒ताचीं॒ साध॑न्ता - 


Sun gives many benefits. Varun (air that goes in and air that goes out) cures many diseases. People have to learn about their ways of working and use them for their benefit.


ऋ॒तेन॑ मित्रावरुणावृतावृधावृतस्पृशा। क्रतुं॑ बृ॒हन्त॑माशाथे॥८॥

ऋतेन । मित्रावरुणौ । ऋतऽवृधौ । ऋतऽस्पृशा ।

क्रतुम् । बृहन्तम् । आशाथे इति ॥

ऋ॒तेन॑ - Regularly as per seasons


मित्रावरुणा - Sun and Varun


ऋ॒तावृधा - Taking water vapour high


ऋ॒तस्पृशा - giving it back as rain


क्रतुं॑ - This regular activity described as yajna or kratu


बृ॒हन्त॑म - in many different way 


आशाथे - keep doing


Sun and varun regularly take water vapour up and create rain. They are doing this yajna in many ways regularly as per seasons.

क॒वी नो॑ मि॒त्रावरु॑णा तुविजा॒ता उ॑रु॒क्षया॑। दक्षं॑ दधाते अ॒पस॑म्॥९॥

कवी इति । नः । मित्रावरुणा । तुविऽजातौ । उरुऽक्षया ।

दक्षम् । दधाते इति । अपसम् ॥

तुविजा॒ता  born in different ways


उ॑रु॒क्षया॑ present in various things


दक्षं॑  अ॒पस॑म् - various actions (right as well as wrong)


दधाते become the basis for action


Mitra and Varuna are present in various things in the creation. They support the actions of the best (kavi) and all other beings born in various ways, whether the actions are right wrong. To do action, beings require the activity of Mitra and Varuna

https://www.hamarivirasat.com/rig-veda-in-hindi-online-chapter-01-sukt-2/

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Sookta 3


https://vedicheritage.gov.in/samhitas/rigveda/shakala-samhita/m01-003/

अश्वि॑ना॒ यज्व॑री॒रिषो॒ द्रव॑त्पाणी॒ शुभ॑स्पती। पुरु॑भुजा चन॒स्यत॑म्॥१॥


अश्विना । यज्वरीः । इषः । द्रवत्पाणी इति द्रवत्ऽपाणी । शुभः । पती इति ।

पुरुऽभुजा । चनस्यतम् ॥

अश्वि॑  combination of two materials (or persons). In this mantra, they are water and fire.

द्रव॑त्पाणी॒  = To go with speed

शुभ॑स्पती = To develop good characteristics

पुरु॑भुजा = To have good food items

यज्व॑री॒ = The art of making vehicles driven by water power and fire power

इष = The art of making food items and foods

चन॒स्यत॑म्  Use


To get fast means of travel, and good food and good thoughts, use the powers of water and fire. Learn about their power and use them for your benefit.

अश्वि॑ना॒ पुरु॑दंससा॒ नरा॒ शवी॑रया धि॒या। धिष्ण्या॒ वन॑तं॒ गिर॑:॥२॥

अश्विना । पुरुऽदंससा । नरा । शवीरया । धिया ।

धिष्ण्या । वनतम् । गिरः ॥

p.33(DB)

पुरु॑दंससा॒  due to which the engineering or building activity (shilpa vidya) takes place.

धिष्ण्या॒ due to which the buildings, vehicles etc. are made very strong.

नरा॒ the engineers and artisans

शवी॑रया   giving speed

धि॒या - the activities - ability and activity to make good things

गिर॑: - sayings that help in engineering

अश्वि॑ना॒ - sayings related to water and fire power

वन॑तं॒ - have to know and utilize.


The shilpakars (engineers and artisans) have to learn more about the water and fire power to make more useful building, vehicles and other engineering (manufactured) items.

दस्रा॑ यु॒वाक॑वः सु॒ता नास॑त्या वृ॒क्तब॑र्हिषः। आ या॑तं रुद्रवर्तनी॥३॥

दस्रा । युवाकवः । सुताः । नासत्या । वृक्तऽबर्हिषः । आ । यातम् । रुद्रवर्तनी ॥


यु॒वाक॑वः - The things in combination with others

सु॒ता - All useful things in the world

वृ॒क्तब॑र्हिषः -  knowledgeable persons who can explain the benefits of various things


रुद्रवर्तनी - he has the life way


दस्रा॑ - Destroyer of sorrows


नास॑त्या - Every thing in him is truth (no untruth whatsoever)


आया॑तं - If you bring them into use or get their support


इन्द्रा या॑हि चित्रभानो सु॒ता इ॒मे त्वा॒यव॑:। अण्वी॑भि॒स्तना॑ पू॒तास॑:॥४॥

इन्द्र । आ । याहि । चित्रभानो इति चित्रऽभानो । सुताः । इमे । त्वाऽयवः ।

अण्वीभिः । तना । पूतासः ॥


चित्रभानो - The person with shine and brightness that is very surprising (strange in the positive sense)

इन्द्रा

अण्वी॑भि॒ - With his rays


तना - Pervading every year 

पूतासः - pure person


त्वा॒यव॑: - With the various ways created by you


सु॒ता - All useful things


Dayananda equates Indra with Surya. To get the benefit of varous things in the world, people have to use solar power, power of Sun.


इन्द्रा या॑हि धि॒येषि॒तो विप्र॑जूतः सु॒ताव॑तः। उप॒ ब्रह्मा॑णि वा॒घत॑:॥५॥


इन्द्र । आ । याहि । धिया । इषितः । विप्रऽजूतः । सुतऽवतः ।

उप । ब्रह्माणि । वाघतः ॥


इन्द्रा

धिया - by good effort

इषितः obtained

 विप्र॑जूतः - the intellectual people have to learn

ब्रह्मा॑णि - persons who know veda mantras

सु॒ताव॑तः - and all other subjects taught in education

वा॒घत॑:

उप॒ या॑हि - to be obtained


People have to seek the help of parameswhar (indra), persons who learned vedas and other subjects to obtain all good things created in this universe.


इन्द्रा या॑हि॒ तूतु॑जान॒ उप॒ ब्रह्मा॑णि हरिवः। सु॒ते द॑धिष्व न॒श्चन॑:॥६॥


इन्द्र । आ । याहि । तूतुजानः । उप । ब्रह्माणि । हरिऽवः ।

सुते । दधिष्व । नः । चनः ॥

हरिवः


तूतु॑जान॒

इन्द्रा

सु॒ते

nah

ब्रह्मा॑णि 

aa  या॑हि॒

nah

chanah

द॑धिष्व 




ओमा॑सश्चर्षणीधृतो॒ विश्वे॑ देवास॒ आ ग॑त। दा॒श्वांसो॑ दा॒शुष॑: सु॒तम्॥७॥

ओमासः । चर्षणिऽधृतः । विश्वे । देवासः । आ । गत ।

दाश्वांसः । दाशुषः । सुतम् ॥

ओमा॑स


श्चर्षणीधृतो॒


दा॒श्वांसो॑


 विश्वे॑ देवास॒


दा॒शुष॑:


सु॒तम्


आ ग॑त





विश्वे॑ दे॒वासो॑ अ॒प्तुर॑: सु॒तमा ग॑न्त॒ तूर्ण॑यः। उ॒स्रा इ॑व॒ स्वस॑राणि॥८॥

विश्वे । देवासः । अप्ऽतुरः । सुतम् । आ । गन्त । तूर्णयः ।

उस्राःऽइव । स्वसराणि ॥



अ॒प्तुर॑:


तूर्ण॑यः


विश्वे॑ दे॒वासो॑


स्वस॑राणि


उ॒स्रा इ॑व॒


सु॒तम


aa ग॑न्त॒



विश्वे॑ दे॒वासो॑ अ॒स्रिध॒ एहि॑मायासो अ॒द्रुह॑:। मेधं॑ जुषन्त॒ वह्न॑यः॥९


विश्वे । देवासः । अस्रिधः । एहिऽमायासः । अद्रुहः ।

मेधम् । जुषन्त । वह्नयः ॥

एहि॑मायासो 


अ॒स्रिध॒


अ॒द्रुह॑:


वह्न॑यः


विश्वे॑ दे॒वासो॑ all scholars in the world


मेधं॑


जुषन्त॒  - To do happily



पा॒व॒का न॒: सर॑स्वती॒ वाजे॑भिर्वा॒जिनी॑वती। य॒ज्ञं व॑ष्टु धि॒याव॑सुः॥१०॥


पावका । नः । सरस्वती । वाजेभिः । वाजिनीऽवती ।

यज्ञम् । वष्टु । धियाऽवसुः ॥

वाजे॑भि


र्वा॒जिनी॑वती


धि॒याव॑सुः


पा॒व॒का 


 सर॑स्वती॒


य॒ज्ञं


व॑ष्टु


चो॒द॒यि॒त्री सू॒नृता॑नां॒ चेत॑न्ती सुमती॒नाम्। य॒ज्ञं द॑धे॒ सर॑स्वती॥११॥

चोदयित्री । सूनृतानाम् । चेतन्ती । सुऽमतीनाम् ।

यज्ञम् । दधे । सरस्वती ॥

 सू॒नृता॑नां॒


सुमती॒नाम्


चेत॑न्ती


चो॒द॒यि॒त्री 


सर॑स्वती


य॒ज्ञं द॑धे॒ 


म॒हो अर्ण॒: सर॑स्वती॒ प्र चे॑तयति के॒तुना॑। धियो॒ विश्वा॒ वि रा॑जति॥१२॥

महः । अर्णः । सरस्वती । प्र । चेतयति । केतुना ।

धियः । विश्वाः । वि । राजति ॥

सर॑स्वती॒


 के॒तुना॑


म॒हो


 अर्ण॒:


प्र चे॑तयति


धियो॒


विश्वा॒


 वि रा॑जति


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Sookta 4 - १० mantras - मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः। इन्द्रः। गायत्री।



सु॒रू॒प॒कृ॒त्नुमू॒तये॑ सु॒दुघा॑मिव गो॒दुहे॑। जु॒हू॒मसि॒ द्यवि॑द्यवि॥१॥


सुरूपऽकृत्नुम् । ऊतये । सुदुघाम्ऽइव । गोऽदुहे ।

जुहूमसि । द्यविऽद्यवि ॥

सु॒रू॒प॒कृ॒त्नुम


मू॒तये॑


 सु॒दुघा॑मिव


 गो॒दुहे॑


जु॒हू॒मसि॒


द्यवि॑द्यवि


उप॑ न॒: सव॒ना ग॑हि॒ सोम॑स्य सोमपाः पिब। गो॒दा इद् रे॒वतो॒ मद॑:॥२॥

उप । नः । सवना । आ । गहि । सोमस्य । सोमऽपाः । पिब ।

गोऽदाः । इत् । रेवतः । मदः ॥

उप॑ 

न॒:

 सव॒ना

aa ग॑हि॒


सोम॑स्य


सोमपाः


 पिब


गो॒दा


 इद् 


रे॒वतो॒ 


मद॑: - will increase pleasure



अथा॑ ते॒ अन्त॑मानां वि॒द्याम॑ सुमती॒नाम्। मा नो॒ अति॑ ख्य॒ आ ग॑हि॥३॥

अथ । ते । अन्तमानाम् । विद्याम । सुऽमतीनाम् ।

मा । नः । अति । ख्यः । आ । गहि ॥

अथा॑


ते॒


अन्त॑मानां


 वि॒द्याम॑


सुमती॒नाम्


मा 


नो॒


अति॑ख्य॒ 


आग॑हि


परे॑हि॒ विग्र॒मस्तृ॑त॒मिन्द्रं॑ पृच्छा विप॒श्चित॑म्। यस्ते॒ सखि॑भ्य॒ आ वर॑म्॥४॥

परा । इहि । विग्रम् । अस्तृतम् । इन्द्रम् । पृच्छ । विपःऽचितम् ।

यः । ते । सखिऽभ्यः । आ । वरम् ॥


पर aa


ihi


विग्र॒म


a स्तृ॑त॒म


indram


पृच्छ


विप॒श्चित॑म्


te


सखि॑भ्य॒


आ 


वर॑म्

उ॒त ब्रु॑वन्तु नो॒ निदो॒ निर॒न्यत॑श्चिदारत। दधा॑ना॒ इन्द्र॒ इद् दुव॑:॥५॥

उत । ब्रुवन्तु । नः । निदः । निः । अन्यतः । चित् । आरत ।

दधानाः । इन्द्रे । इत् । दुवः ॥

उ॒त


 ब्रु॑वन्तु 


नो॒ nah 


 निद


नि

a न्यत॑


श्चिदारत

chit


 Aarata


 दधा॑ना॒


इन्द्र॒ 


इद् 


दुव॑:



उ॒त न॑: सु॒भगाँ॑ अ॒रिर्वो॒चेयु॑र्दस्म कृ॒ष्टय॑:। स्यामेदिन्द्र॑स्य॒ शर्म॑णि॥६॥  (page 49 DS)

उत । नः । सुऽभगान् । अरिः । वोचेयुः । दस्म । कृष्टयः ।

स्याम । इत् । इन्द्रस्य । शर्मणि ॥

उ॒त 


न॑:


सु॒भगाँ॑


अ॒रि


 र्वो॒चेयु॑


र्दस्म


कृ॒ष्टय॑:

स्याम

it

I न्द्र॑स्य॒

शर्म॑णि


एमा॒शुमा॒शवे॑ भर यज्ञ॒श्रियं॑ नृ॒माद॑नम्। प॒त॒यन् म॑न्द॒यत्स॑खम्॥७॥

आ । ईम् । आशुम् । आशवे । भर । यज्ञऽश्रियम् । नृऽमादनम् ।

पतयत् । मन्दयत्ऽसखम् ॥

aa शवे॑

aaशुम


यज्ञ॒श्रियं॑


 eeम


 नृ॒माद॑नम्


प॒त॒यन् 


म॑न्द॒यत्स॑खम्


 भर 

  


अ॒स्य पी॒त्वा श॑तक्रतो घ॒नो वृ॒त्राणा॑मभवः। प्रावो॒ वाजे॑षु वा॒जिन॑म्॥८॥

अस्य । पीत्वा । शतक्रतो इति शतऽक्रतो । घनः । वृत्राणाम् । अभवः ।

प्र । आवः । वाजेषु । वाजिनम् ॥

अ॒स्य 


पी॒त्वा 


श॑तक्रतो


 घ॒नो 


वृ॒त्राणा॑म


a भवः


प्रावो॒ 


वाजे॑षु 


वा॒जिन॑म्



तं त्वा॒ वाजे॑षु वा॒जिनं॑ वा॒जया॑मः शतक्रतो। धना॑नामिन्द्र सा॒तये॑॥९॥

तम् । त्वा । वाजेषु । वाजिनम् । वाजयामः । शतक्रतो इति शतऽक्रतो ।

धनानाम् । इन्द्र । सातये ॥

तं 


त्वा॒ 


वाजे॑षु 


वा॒जिनं॑ 


वा॒जया॑मः 


शतक्रतो


धना॑नाम


Iन्द्र 


सा॒तये॑


यो रा॒यो॒३ऽवनि॑र्म॒हान्त्सु॑पा॒रः सु॑न्व॒तः सखा॑। तस्मा॒ इन्द्रा॑य गायत॥१०॥

यः । रायः । अवनिः । महान् । सुऽपारः । सुन्वतः । सखा ।

तस्मै । इन्द्राय । गायत ॥


यो 


रा॒य


aवनि॑


र्म॒हाn


su पा॒रः 


सु॑न्व॒तः


सखा॑। तस्मा॒ 


इन्द्रा॑य 


गायत

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Sookta 5. 10 Mantras मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः। इन्द्रः। गायत्री।



आ त्वेता॒ नि षी॑द॒तेन्द्र॑म॒भि प्र गा॑यत। सखा॑य॒: स्तोम॑वाहसः॥१॥


आ । तु । आ । इत । नि । सीदत । इन्द्रम् । अभि । प्र । गायत ।

सखायः । स्तोमऽवाहसः ॥


आ । तु । आ । इत । नि । सीदत । इन्द्रम् । अभि । प्र । गायत ।

सखायः । स्तोमऽवाहसः ॥


पु॒रू॒तमं॑ पुरू॒णामीशा॑नं॒ वार्या॑णाम्। इन्द्रं॒ सोमे॒ सचा॑ सु॒ते॥२॥


पुरुऽतमम् । पुरूणाम् । ईशानम् । वार्याणाम् ।

इन्द्रम् । सोमे । सचा । सुते ॥


पुरुऽतमम् । पुरूणाम् । ईशानम् । वार्याणाम् ।

इन्द्रम् । सोमे । सचा । सुते ॥


स घा॑ नो॒ योग॒ आ भु॑व॒त् स रा॒ये स पुरं॑ध्याम्। गम॒द्वाजे॑भि॒रा स न॑:॥३॥

सः । घ । नः । योगे । आ । भुवत् । सः । राये । सः । पुरम्ऽध्याम् ।

गमत् । वाजेभिः । आ । सः । नः ॥


सः । घ । नः । योगे । आ । भुवत् । सः । राये । सः । पुरम्ऽध्याम् ।
गमत् । वाजेभिः । आ । सः । नः ॥


यस्य॑ सं॒स्थे न वृ॒ण्वते॒ हरी॑ स॒मत्सु॒ शत्र॑वः। तस्मा॒ इन्द्रा॑य गायत॥४॥


यस्य । सम्ऽस्थे । न । वृण्वते । हरी इति । समत्ऽसु । शत्रवः ।

तस्मै । इन्द्राय । गायत ॥


यस्य । सम्ऽस्थे । न । वृण्वते । हरी इति । समत्ऽसु । शत्रवः ।
तस्मै । इन्द्राय । गायत ॥


सु॒त॒पाव्ने॑ सु॒ता इ॒मे शुच॑यो यन्ति वी॒तये॑। सोमा॑सो॒ दध्या॑शिरः॥५॥


सुतऽपाव्ने । सुताः । इमे । शुचयः । यन्ति । वीतये ।

सोमासः । दधिऽआशिरः ॥


त्वं सु॒तस्य॑ पी॒तये॑ स॒द्यो वृ॒द्धो अ॑जायथाः। इन्द्र॒ ज्यैष्ठ्या॑य सुक्रतो॥६॥


त्वम् । सुतस्य । पीतये । सद्यः । वृद्धः । अजायथाः ।

इन्द्र । ज्यैष्ठ्याय । सुक्रतो इति सुऽक्रतो ॥


त्वम् । सुतस्य । पीतये । सद्यः । वृद्धः । अजायथाः ।

इन्द्र । ज्यैष्ठ्याय । सुक्रतो इति सुऽक्रतो ॥



आ त्वा॑ विशन्त्वा॒शव॒: सोमा॑स इन्द्र गिर्वणः। शं ते॑ सन्तु॒ प्रचे॑तसे॥७॥


आ । त्वा । विशन्तु । आशवः । सोमासः । इन्द्र । गिर्वणः ।

शम् । ते । सन्तु । प्रऽचेतसे ॥


आ । त्वा । विशन्तु । आशवः । सोमासः । इन्द्र । गिर्वणः ।

शम् । ते । सन्तु । प्रऽचेतसे ॥

त्वां स्तोमा॑ अवीवृध॒न् त्वामु॒क्था श॑तक्रतो। त्वां व॑र्धन्तु नो॒ गिर॑:॥८॥


त्वाम् । स्तोमाः । अवीवृधन् । त्वाम् । उक्था । शतक्रतो इति शतऽक्रतो ।

त्वाम् । वर्धन्तु । नः । गिरः ॥


त्वाम् । स्तोमाः । अवीवृधन् । त्वाम् । उक्था । शतक्रतो इति शतऽक्रतो ।

त्वाम् । वर्धन्तु । नः । गिरः ॥


अक्षि॑तोतिः सनेदि॒मं वाज॒मिन्द्र॑: सह॒स्रिण॑म्। यस्मि॒न् विश्वा॑नि॒ पौंस्या॑॥९॥


अक्षितऽऊतिः । सनेत् । इमम् । वाजम् । इन्द्रः । सहस्रिणम् ।

यस्मिन् । विश्वानि । पौंस्या ॥


अक्षितऽऊतिः । सनेत् । इमम् । वाजम् । इन्द्रः । सहस्रिणम् ।

यस्मिन् । विश्वानि । पौंस्या ॥


मा नो॒ मर्ता॑ अ॒भि द्रु॑हन्त॒नूना॑मिन्द्र गिर्वणः। ईशा॑नो यवया व॒धम्॥१०॥


मा । नः । मर्ताः । अभि । द्रुहन् । तनूनाम् । इन्द्र । गिर्वणः ।

ईशानः । यवय । वधम् ॥


मा । नः । मर्ताः । अभि । द्रुहन् । तनूनाम् । इन्द्र । गिर्वणः ।

ईशानः । यवय । वधम् ॥

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Sookta 6. 10 Mantras मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः। १-३ इन्द्रः, ४,६,८,९ मरुतः, ५,७ मरुत इन्द्रश्च, 10 इन्द्रः। गायत्री।


यु॒ञ्जन्ति॑ ब्र॒ध्नम॑रु॒षं चर॑न्तं॒ परि॑ त॒स्थुष॑:। रोच॑न्ते रोच॒ना दि॒वि॥१॥


युञ्जन्ति । ब्रध्नम् । अरुषम् । चरन्तम् । परि । तस्थुषः ।

रोचन्ते । रोचना । दिवि ॥


युञ्जन्ति । 

ब्रध्नम् । 

अरुषम् । 

चरन्तम् । 

परि । 

तस्थुषः ।

रोचन्ते ।

 रोचना । 

दिवि ॥


यु॒ञ्जन्त्य॑स्य॒ काम्या॒ हरी॒ विप॑क्षसा॒ रथे॑। शोणा॑ धृ॒ष्णू नृ॒वाह॑सा॥२॥


युञ्जन्ति । अस्य । काम्या । हरी इति । विऽपक्षसा । रथे ।

शोणा । धृष्णू इति । नृऽवाहसा ॥


युञ्जन्ति । 

अस्य । 

काम्या । 

हरी इति । 

विऽपक्षसा । 

रथे ।

शोणा । 

धृष्णू इति । 

नृऽवाहसा ॥


के॒तुं कृ॒ण्वन्न॑के॒तवे॒ पेशो॑ मर्या अपे॒शसे॑। समु॒षद्भि॑रजायथाः॥३॥


केतुम् । कृण्वन् । अकेतवे । पेशः । मर्याः । अपेशसे ।

सम् । उषत्ऽभिः । अजायथाः ॥


केतुम् । 
कृण्वन् । 
अकेतवे । 
पेशः । 
मर्याः । 
अपेशसे ।
सम् । 
उषत्ऽभिः । 
अजायथाः ॥


आदह॑ स्व॒धामनु॒ पुन॑र्गर्भ॒त्वमे॑रि॒रे। दधा॑ना॒ नाम॑ य॒ज्ञिय॑म्॥४॥


आत् । अह । स्वधाम् । अनु । पुनः । गर्भऽत्वम् । आऽईरिरे ।

दधानाः । नाम । यज्ञियम् ॥


आत् । 

अह । 

स्वधाम् । 

अनु । 

पुनः । 

गर्भऽत्वम् । 

आऽईरिरे ।

दधानाः । 

नाम । 

यज्ञियम् ॥


वी॒ळु चि॑दारुज॒त्नुभि॒र्गुहा॑ चिदिन्द्र॒ वह्नि॑भिः। अवि॑न्द उ॒स्रिया॒ अनु॑॥५॥


वीळु । चित् । आरुजत्नुऽभिः । गुहा । चित् । इन्द्र । वह्निऽभिः ।

अविन्दः । उस्रियाः । अनु ॥


वीळु । 

चित् । 

आरुजत्नुऽभिः । 

गुहा । 

चित् । 

इन्द्र । 

वह्निऽभिः ।

अविन्दः । 

उस्रियाः । 

अनु ॥


दे॒व॒यन्तो॒ यथा॑ म॒तिमच्छा॑ वि॒दद्व॑सुं॒ गिर॑:। म॒हाम॑नूषत श्रु॒तम्॥६॥

देवऽयन्तः । यथा । मतिम् । अच्छ । विदत्ऽवसुम् । गिरः ।

महाम् । अनूषत । श्रुतम् ॥

देवऽयन्तः । यथा । मतिम् । अच्छ । विदत्ऽवसुम् । गिरः ।

महाम् । अनूषत । श्रुतम् ॥


इन्द्रे॑ण॒ सं हि दृक्ष॑से संजग्मा॒नो अबि॑भ्युषा। म॒न्दू स॑मा॒नव॑र्चसा॥७॥


इन्द्रेण । सम् । हि । दृक्षसे । सम्ऽजग्मानः । अबिभ्युषा ।

मन्दू इति । समानऽवर्चसा ॥


इन्द्रेण । सम् । हि । दृक्षसे । सम्ऽजग्मानः । अबिभ्युषा ।

मन्दू इति । समानऽवर्चसा ॥


अ॒न॒व॒द्यैर॒भिद्यु॑भिर्म॒खः सह॑स्वदर्चति। ग॒णैरिन्द्र॑स्य॒ काम्यै॑:॥८॥


अनवद्यैः । अभिद्युऽभिः । मखः । सहस्वत् । अर्चति ।

गणैः । इन्द्रस्य । काम्यैः ॥


अनवद्यैः । अभिद्युऽभिः । मखः । सहस्वत् । अर्चति ।

गणैः । इन्द्रस्य । काम्यैः ॥


अत॑: परिज्म॒न्ना ग॑हि दि॒वो वा॑ रोच॒नादधि॑। सम॑स्मिन्नृञ्जते॒ गिर॑:॥९॥


अतः । परिऽज्मन् । आ । गहि । दिवः । वा । रोचनात् । अधि ।

सम् । अस्मिन् । ऋञ्जते । गिरः ॥


अतः । परिऽज्मन् । आ । गहि । दिवः । वा । रोचनात् । अधि ।

सम् । अस्मिन् । ऋञ्जते । गिरः ॥


इ॒तो वा॑ सा॒तिमीम॑हे दि॒वो वा॒ पार्थि॑वा॒दधि॑। इन्द्रं॑ म॒हो वा॒ रज॑सः॥१०॥


इतः । वा । सातिम् । ईमहे । दिवः । वा । पार्थिवात् । अधि ।

इन्द्रम् । महः । वा । रजसः ॥


इतः । वा । सातिम् । ईमहे । दिवः । वा । पार्थिवात् । अधि ।

इन्द्रम् । महः । वा । रजसः ॥

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Sookta 7 - 10 Mantas मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः। इन्द्रः। गायत्री।


इन्द्र॒मिद्गा॒थिनो॑ बृ॒हदिन्द्र॑म॒र्केभि॑र॒र्किण॑:। इन्द्रं॒ वाणी॑रनूषत॥१॥


इन्द्रम् । इत् । गाथिनः । बृहत् । इन्द्रम् । अर्केभिः । अर्किणः ।

इन्द्रम् । वाणीः । अनूषत ॥


इन्द्रम् । 

इत् । 

गाथिनः । 

बृहत् । 

इन्द्रम् । 

अर्केभिः । 

अर्किणः ।

इन्द्रम् । 

वाणीः । 

अनूषत ॥


इन्द्र॒ इद्धर्यो॒: सचा॒ संमि॑श्ल॒ आ व॑चो॒युजा॑। इन्द्रो॑ व॒ज्री हि॑र॒ण्यय॑:॥२॥


इन्द्रः । इत् । हर्योः । सचा । सम्ऽमिश्लः । आ । वचःऽयुजा ।

इन्द्रः । वज्री । हिरण्ययः ॥


इन्द्रः । 

इत् । 

हर्योः । 

सचा । 

सम्ऽमिश्लः । 

आ । 

वचःऽयुजा ।

इन्द्रः । 

वज्री ।

हिरण्ययः |


इन्द्रो॑ दी॒र्घाय॒ चक्ष॑स॒ आ सूर्यं॑ रोहयद् दि॒वि। वि गोभि॒रद्रि॑मैरयत्॥३॥


इन्द्रः । दीर्घाय । चक्षसे । आ । सूर्यम् । रोहयत् । दिवि ।

वि । गोभिः । अद्रिम् । ऐरयत् ॥


इन्द्रः । 

दीर्घाय । 

चक्षसे । 

आ । 

सूर्यम् । 

रोहयत् । 

दिवि ।

वि । 

गोभिः । 

अद्रिम् । 

ऐरयत् ॥


इन्द्र॒ वाजे॑षु नोऽव स॒हस्र॑प्रधनेषु च। उ॒ग्र उ॒ग्राभि॑रू॒तिभि॑:॥४॥


इन्द्र । वाजेषु । नः । अव । सहस्रऽप्रधनेषु । च ।

उग्रः । उग्राभिः । ऊतिऽभिः ॥


इन्द्र । 

वाजेषु । 

नः । 

अव । 

सहस्रऽप्रधनेषु । 

च ।

उग्रः । 

उग्राभिः । 

ऊतिऽभिः ॥


इन्द्रं॑ व॒यं म॑हाध॒न इन्द्र॒मर्भे॑ हवामहे। युजं॑ वृ॒त्रेषु॑ व॒ज्रिण॑म्॥५॥


इन्द्रम् । वयम् । महाऽधने । इन्द्रम् । अर्भे । हवामहे ।

युजम् । वृत्रेषु । वज्रिणम् ॥


इन्द्रम् । 

वयम् । 

महाऽधने । 

इन्द्रम् । 

अर्भे । 

हवामहे ।

युजम् । 

वृत्रेषु । 

वज्रिणम् ॥


स नो॑ वृषन्न॒मुं च॒रुं सत्रा॑दाव॒न्नपा॑ वृधि। अ॒स्मभ्य॒मप्र॑तिष्कुतः॥६॥


सः । नः । वृषन् । अमुम् । चरुम् । सत्राऽदावन् । अप । वृधि ।

अस्मभ्यम् । अप्रतिऽस्कुतः ॥


सः । 

नः । 

वृषन् । 

अमुम् । 

चरुम् । 

सत्राऽदावन् । 

अप । 

वृधि ।

अस्मभ्यम् । 

अप्रतिऽस्कुतः ॥


तु॒ञ्जेतु॑ञ्जे॒ य उत्त॑रे॒ स्तोमा॒ इन्द्र॑स्य व॒ज्रिण॑:। न वि॑न्धे अस्य सुष्टु॒तिम्॥७॥


तुञ्जेऽतुञ्जे । ये । उत्ऽतरे । स्तोमाः । इन्द्रस्य । वज्रिणः ।

न । विन्धे । अस्य । सुऽस्तुतिम् ॥


तुञ्जेऽतुञ्जे । 

ये । 

उत्ऽतरे । 

स्तोमाः । 

इन्द्रस्य । 

वज्रिणः ।

न । 

विन्धे । 

अस्य । 

सुऽस्तुतिम् ॥


वृषा॑ यू॒थेव॒ वंस॑गः कृ॒ष्टीरि॑य॒र्त्योज॑सा। ईशा॑नो॒ अप्र॑तिष्कुतः॥८॥


वृषा । यूथाऽइव । वंसगः । कृष्टीः । इयर्ति । ओजसा ।

ईशानः । अप्रतिऽस्कुतः ॥


वृषा । 

यूथाऽइव । 

वंसगः । 

कृष्टीः । 

इयर्ति । 

ओजसा ।

ईशानः । 

अप्रतिऽस्कुतः ॥


य एक॑श्चर्षणी॒नां वसू॑नामिर॒ज्यति॑। इन्द्र॒: पञ्च॑ क्षिती॒नाम्॥९॥


यः । एकः । चर्षणीनाम् । वसूनाम् । इरज्यति ।

इन्द्रः । पञ्च । क्षितीनाम् ॥


यः । 

एकः । 

चर्षणीनाम् । 

वसूनाम् । 

इरज्यति ।

इन्द्रः । 

पञ्च । 

क्षितीनाम् ॥


इन्द्रं॑ वो वि॒श्वत॒स्परि॒ हवा॑महे॒ जने॑भ्यः। अ॒स्माक॑मस्तु॒ केव॑लः॥१०॥


इन्द्रम् । वः । विश्वतः । परि । हवामहे । जनेभ्यः ।

अस्माकम् । अस्तु । केवलः ॥


इन्द्रम् । 

वः । 

विश्वतः । 

परि । 

हवामहे । 

जनेभ्यः ।

अस्माकम् । 

अस्तु । 

केवलः ॥


Sookta 8 - 10 Mantras मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः। इन्द्रः। गायत्री।

एन्द्र॑ सान॒सिं र॒यिं स॒जित्वा॑नं सदा॒सह॑म्। वर्षि॑ष्ठमू॒तये॑ भर॥१॥


आ । इन्द्र । सानसिम् । रयिम् । सऽजित्वानम् । सदाऽसहम् ।

वर्षिष्ठम् । ऊतये । भर ॥


आ । 

इन्द्र । 

सानसिम् । 

रयिम् । 

सऽजित्वानम् । 

सदाऽसहम् ।

वर्षिष्ठम् । 

ऊतये । 

भर ॥

नि येन॑ मुष्टिह॒त्यया॒ नि वृ॒त्रा रु॒णधा॑महै। त्वोता॑सो॒ न्यर्व॑ता॥२॥


नि । येन । मुष्टिऽहत्यया । नि । वृत्रा । रुणधामहै ।

त्वाऽऊतासः । नि । अर्वता ॥


नि । 

येन । 

मुष्टिऽहत्यया । 

नि । 

वृत्रा । 

रुणधामहै ।

त्वाऽऊतासः । 

नि । 

अर्वता ॥

इन्द्र॒ त्वोता॑स॒ आ व॒यं वज्रं॑ घ॒ना द॑दीमहि। जये॑म॒ सं यु॒धि स्पृध॑:॥३॥


इन्द्र । त्वाऽऊतासः । आ । वयम् । वज्रम् । घना । ददीमहि ।

जयेम । सम् । युधि । स्पृधः ॥


इन्द्र । 

त्वाऽऊतासः । 

आ । 

वयम् । 

वज्रम् । 

घना । 

ददीमहि ।

जयेम । 

सम् । 

युधि । 

स्पृधः ॥


व॒यं शूरे॑भि॒रस्तृ॑भि॒रिन्द्र॒ त्वया॑ यु॒जा व॒यम्। सा॒स॒ह्याम॑ पृतन्य॒तः॥४॥


वयम् । शूरेभिः । अस्तृऽभिः । इन्द्र । त्वया । युजा । वयम् ।

ससह्याम । पृतन्यतः ॥


वयम् । 

शूरेभिः । 

अस्तृऽभिः । 

इन्द्र । 

त्वया । 

युजा । 

वयम् ।

ससह्याम । 

पृतन्यतः ॥


म॒हाँ इन्द्र॑: प॒रश्च॒ नु म॑हि॒त्वम॑स्तु व॒ज्रिणे॑। द्यौर्न प्र॑थि॒ना शव॑:॥५॥


महान् । इन्द्रः । परः । च । नु । महिऽत्वम् । अस्तु । वज्रिणे ।

द्यौः । न । प्रथिना । शवः ॥


महान् । 

इन्द्रः । 

परः । 

च । 

नु । 

महिऽत्वम् । 

अस्तु । 

वज्रिणे ।

द्यौः । 

न । 

प्रथिना । 

शवः ॥

स॒मो॒हे वा॒ य आश॑त॒ नर॑स्तो॒कस्य॒ सनि॑तौ। विप्रा॑सो वा धिया॒यव॑:॥६॥


सम्ऽओहे । वा । ये । आशत । नरः । तोकस्य । सनितौ ।

विप्रासः । वा । धियाऽयवः ॥


सम्ऽओहे । 

वा । 

ये । 

आशत । 

नरः । 

तोकस्य । 

सनितौ ।

विप्रासः । 

वा । 

धियाऽयवः ॥


यः कु॒क्षिः सो॑म॒पात॑मः समु॒द्र इ॑व॒ पिन्व॑ते। उ॒र्वीरापो॒ न का॒कुद॑:॥७॥


यः । कुक्षिः । सोमऽपातमः । समुद्रःऽइव । पिन्वते ।

उर्वीः । आपः । न । काकुदः ॥


यः । 

कुक्षिः । 

सोमऽपातमः । 

समुद्रःऽइव । 

पिन्वते ।

उर्वीः । 

आपः । 

न । 

काकुदः ॥



ए॒वा ह्य॑स्य सू॒नृता॑ विर॒प्शी गोम॑ती म॒ही। प॒क्वा शाखा॒ न दा॒शुषे॑॥८॥


एव । हि । अस्य । सूनृता । विऽरप्शी । गोऽमती । मही ।

पक्वा । शाखा । न । दाशुषे ॥


एव । 

हि । 

अस्य । 

सूनृता । 

विऽरप्शी । 

गोऽमती । 

मही ।

पक्वा । 

शाखा । 

न । 

दाशुषे ॥


ए॒वा हि ते॒ विभू॑तय ऊ॒तय॑ इन्द्र॒ माव॑ते। स॒द्यश्चि॒त् सन्ति॑ दा॒शुषे॑॥९॥


एव । हि । ते । विऽभूतयः । ऊतयः । इन्द्र । माऽवते ।

सद्यः । चित् । सन्ति । दाशुषे ॥


एव । 

हि । 

ते । 

विऽभूतयः । 

ऊतयः । 

इन्द्र । 

माऽवते ।

सद्यः । 

चित् । 

सन्ति । 

दाशुषे ॥


ए॒वा ह्य॑स्य॒ काम्या॒ स्तोम॑ उ॒क्थं च॒ शंस्या॑। इन्द्रा॑य॒ सोम॑पीतये॥१०॥


एव । हि । अस्य । काम्या । स्तोमः । उक्थम् । च । शंस्या ।
इन्द्राय । सोमऽपीतये ॥

एव ।
हि । 
अस्य । 
काम्या । 
स्तोमः । 
उक्थम् । 
च । 
शंस्या ।
इन्द्राय । 
सोमऽपीतये ॥


Sookta 9 - 10 Mantras -  मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः। इन्द्रः। गायत्री।


इन्द्रेहि॒ मत्स्यन्ध॑सो॒ विश्वे॑भिः सोम॒पर्व॑भिः। म॒हाँ अ॑भि॒ष्टिरोज॑सा॥१॥

इन्द्र । आ । इहि । मत्सि । अन्धसः । विश्वेभिः । सोमपर्वऽभिः ।

महान् । अभिष्टिः । ओजसा ॥

Page 98 (DSB)

इन्द्र । 

आ । 

इहि । 

मत्सि । 

अन्धसः । 

विश्वेभिः । 

सोमपर्वऽभिः ।

महान् । 

अभिष्टिः । 

ओजसा ॥

एमे॑नं सृजता सु॒ते म॒न्दिमिन्द्रा॑य म॒न्दिने॑। चक्रिं॒ विश्वा॑नि॒ चक्र॑ये॥२॥

आ । ईम् । एनम् । सृजत । सुते । मन्दिम् । इन्द्राय । मन्दिने ।

चक्रिम् । विश्वानि । चक्रये ॥


आ । 

ईम् ।

 एनम् । 

सृजत । 

सुते । 

मन्दिम् । 

इन्द्राय । 

मन्दिने ।

चक्रिम् । 

विश्वानि । 

चक्रये ॥


मत्स्वा॑ सुशिप्र म॒न्दिभि॒: स्तोमे॑भिर्विश्वचर्षणे। सचै॒षु सव॑ने॒ष्वा॥३॥

मत्स्व । सुऽशिप्र । मन्दिऽभिः । स्तोमेभिः । विश्वऽचर्षणे ।

सचा । एषु । सवनेषु । आ ॥


असृ॑ग्रमिन्द्र ते॒ गिर॒: प्रति॒ त्वामुद॑हासत। अजो॑षा वृष॒भं पति॑म्॥४॥      (p.100 DS Book )

असृग्रम् । इन्द्र । ते । गिरः । प्रति । त्वाम् । उत् । अहासत ।

अजोषाः । वृषभम् । पतिम् ॥


असृग्रम् ।

 इन्द्र । 

ते । 

गिरः । 

प्रति । 

त्वाम् । 

उत् । 

अहासत ।

अजोषाः । 

वृषभम् । 

पतिम् ॥

असृ॑ग्रम

iन्द्र


 ते॒ 


गिर॒: 


प्रति॒


 त्वाम


uद॑हासत


अजो॑षा 


वृष॒भं 


पति॑म्

सं चो॑दय चि॒त्रम॒र्वाग् राध॑ इन्द्र॒ वरे॑ण्यम्। अस॒दित् ते॑ वि॒भु प्र॒भु॥५॥

सम् । चोदय । चित्रम् । अर्वाक् । राधः । इन्द्र । वरेण्यम् ।

असत् । इत् । ते । विऽभु । प्रऽभु ॥

सम् । 

चोदय । 

चित्रम् । 

अर्वाक् । 

राधः ।   Prosperity, Success

इन्द्र । 

वरेण्यम् ।

असत् । 

इत् । 

ते । 

विऽभु । 

प्रऽभु ॥

अ॒स्मान्त्सु तत्र॑ चोद॒येन्द्र॑ रा॒ये रभ॑स्वतः। तुवि॑द्युम्न॒ यश॑स्वतः॥६॥

अस्मान् । सु । तत्र । चोदय । इन्द्र । राये । रभस्वतः ।

तुविऽद्युम्न । यशस्वतः ॥


सं गोम॑दिन्द्र॒ वाज॑वद॒स्मे पृ॒थु श्रवो॑ बृ॒हत्। वि॒श्वायु॑र्धे॒ह्यक्षि॑तम्॥७॥

सम् । गोऽमत् । इन्द्र । वाजऽवत् । अस्मे इति । पृथु । श्रवः । बृहत् ।

विश्वऽआयुः । धेहि । अक्षितम् ॥

सम् । 

गोऽमत् । 

इन्द्र । 

वाजऽवत् । 

अस्मे इति । 

पृथु । 

श्रवः । 

बृहत् ।

विश्वऽआयुः । 

धेहि । 

अक्षितम् ॥

अ॒स्मे धे॑हि॒ श्रवो॑ बृ॒हद् द्यु॒म्नं स॑हस्र॒सात॑मम्। इन्द्र॒ ता र॒थिनी॒रिष॑:॥८॥

अस्मे इति । धेहि । श्रवः । बृहत् । द्युम्नम् । सहस्रऽसातमम् ।

इन्द्र । ताः । रथिनीः । इषः ॥

अस्मे इति । 

धेहि । 

श्रवः । 

बृहत् । 

द्युम्नम् । 

सहस्रऽसातमम् ।

इन्द्र । 

ताः । 

रथिनीः । 

इषः ॥

वसो॒रिन्द्रं॒ वसु॑पतिं गी॒र्भिर्गृ॒णन्त॑ ऋ॒ग्मिय॑म्। होम॒ गन्ता॑रमू॒तये॑॥९॥

वसोः । इन्द्रम् । वसुऽपतिम् । गीःऽभिः । गृणन्तः । ऋग्मियम् ।

होम । गन्तारम् । ऊतये ॥

वसोः । 

इन्द्रम् । 

वसुऽपतिम् । 

गीःऽभिः । 

गृणन्तः । 

ऋग्मियम् ।

होम । 

गन्तारम् । 

ऊतये ॥

सु॒ते सु॑ते॒ न्यो॑कसे बृ॒हद् बृ॑ह॒त एद॒रिः। इन्द्रा॑य शू॒षम॑र्चति॥१०॥

सुतेऽसुते । निऽओकसे । बृहत् । बृहते । आ । इत् । अरिः ।

इन्द्राय । शूषम् । अर्चति ॥

सुतेऽसुते । 

निऽओकसे । 

बृहत् । 

बृहते । 

आ । 

इत् । 

अरिः ।

इन्द्राय । 

शूषम् । 

अर्चति ॥


Sookta 10 - 12 Mantras -  मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः। इन्द्रः। अनुष्टुप्।

गाय॑न्ति त्वा गाय॒त्रिणोऽर्च॑न्त्य॒र्कम॒र्किण॑:। ब्र॒ह्माण॑स्त्वा शतक्रत॒ उद् वं॒शमि॑व येमिरे॥१॥


गायन्ति । त्वा । गायत्रिणः । अर्चन्ति । अर्कम् । अर्किणः ।

ब्रह्माणः । त्वा । शतक्रतो इति शतऽक्रतो । उत् । वंशम्ऽइव । येमिरे ॥



यत् सानो॒: सानु॒मारु॑ह॒द् भूर्यस्प॑ष्ट॒ कर्त्व॑म्। तदिन्द्रो॒ अर्थं॑ चेतति यू॒थेन॑ वृ॒ष्णिरे॑जति॥२॥

यत् । सानोः । सानुम् । आ । अरुहत् । भूरि । अस्पष्ट । कर्त्वम् ।

तत् । इन्द्रः । अर्थम् । चेतति । यूथेन । वृष्णिः । एजति ॥


यु॒क्ष्वा हि के॒शिना॒ हरी॒ वृष॑णा कक्ष्य॒प्रा। अथा॑ न इन्द्र सोमपा गि॒रामुप॑श्रुतिं चर॥३॥

युक्ष्व । हि । केशिना । हरी इति । वृषणा । कक्ष्यऽप्रा ।

अथ । नः । इन्द्र । सोमऽपाः । गिराम् । उपऽश्रुतिम् । चर ॥


एहि॒ स्तोमाँ॑ अ॒भि स्व॑रा॒ ऽभि गृ॑णी॒ह्या रु॑व। ब्रह्म॑ च नो वसो॒ सचेन्द्र॑ य॒ज्ञं च॑ वर्धय ॥४॥

आ । इहि । स्तोमान् । अभि । स्वर । अभि । गृणीहि । आ । रुव ।

ब्रह्म । च । नः । वसो इति । सचा । इन्द्र । यज्ञम् । च । वर्धय ॥


उ॒क्थमिन्द्रा॑य॒ शंस्यं॒ वर्ध॑नं पुरुनि॒ष्षिधे॑। श॒क्रो यथा॑ सु॒तेषु॑ णो रा॒रण॑त् स॒ख्येषु॑ च॥५॥

उक्थम् । इन्द्राय । शंस्यम् । वर्धनम् । पुरुनिःऽसिधे ।

शक्रः । यथा । सुतेषु । नः । ररणत् । सख्येषु । च ॥

तमित् स॑खि॒त्व ई॑महे॒ तं रा॒ये तं सु॒वीर्ये॑। स श॒क्र उ॒त न॑: शक॒दिन्द्रो॒ वसु॒ दय॑मानः॥६॥

तम् । इत् । सखिऽत्वे । ईमहे । तम् । राये । तम् । सुऽवीर्ये ।

सः । शक्रः । उत । नः । शकत् । इन्द्रः । वसु । दयमानः ॥


सु॒वि॒वृतं॑ सुनि॒रज॒मिन्द्र॒ त्वादा॑त॒मिद्यश॑:। गवा॒मप॑ व्र॒जं वृ॑धि कृणु॒ष्व राधो॑ अद्रिवः॥७॥

सुऽविवृतम् । सुनिःऽअजम् । इन्द्र । त्वाऽदातम् । इत् । यशः ।

गवाम् । अप । व्रजम् । वृधि । कृणुष्व । राधः । अद्रिऽवः ॥


न॒हि त्वा॒ रोद॑सी उ॒भे ऋ॑घा॒यमा॑ण॒मिन्व॑तः। जेष॒: स्व॑र्वतीर॒पः सं गा अ॒स्मभ्यं॑ धूनुहि॥८॥

नहि । त्वा । रोदसी इति । उभे इति । ऋघायमाणम् । इन्वतः ।

जेषः । स्वःऽवतीः । अपः । सम् । गाः । अस्मभ्यम् । धूनुहि ॥

आश्रु॑त्कर्ण श्रु॒धी हवं॒ नू चि॑द्दधिष्व मे॒ गिर॑:। इन्द्र॒ स्तोम॑मि॒मं मम॑ कृ॒ष्वा यु॒जश्चि॒दन्त॑रम् ॥९॥

आश्रुत्ऽकर्ण । श्रुधि । हवम् । नु । चित् । दधिष्व । मे । गिरः ।

इन्द्र । स्तोमम् । इमम् । मम । कृष्व । युजः । चित् । अन्तरम् ॥


वि॒द्मा हि त्वा॒ वृष॑न्तमं॒ वाजे॑षु हवन॒श्रुत॑म्। वृष॑न्तमस्य हूमह ऊ॒तिं स॑हस्र॒सात॑माम्॥१०॥

विद्म । हि । त्वा । वृषन्ऽतमम् । वाजेषु । हवनऽश्रुतम् ।

वृषन्ऽतमस्य । हूमहे । ऊतिम् । सहस्रऽसातमाम् ॥


आ तू न॑ इन्द्र कौशिक मन्दसा॒नः सु॒तं पि॑ब। नव्य॒मायु॒: प्र सू ति॑र कृ॒धी स॑हस्र॒सामृषि॑म्॥११॥

आ । तु । नः । इन्द्र । कौशिक । मन्दसानः । सुतम् । पिब ।

नव्यम् । आयुः । प्र । सु । तिर । कृधि । सहस्रऽसाम् । ऋषिम् ॥


परि॑ त्वा गिर्वणो॒ गिर॑ इ॒मा भ॑वन्तु वि॒श्वत॑: । वृ॒द्धायु॒मनु॒ वृद्ध॑यो॒ जुष्टा॑ भवन्तु॒ जुष्ट॑यः॥१२॥

परि । त्वा । गिर्वणः । गिरः । इमाः । भवन्तु । विश्वतः ।

वृद्धऽआयुम् । अनु । वृद्धयः । जुष्टाः । भवन्तु । जुष्टयः ॥





(To be completed by 5 November).


https://archive.org/stream/Rigveda_201402/RIG-Veda-1-of-5_djvu.txt


https://archive.org/details/RigvedaBhashyaDayanandMandal17All/Rigveda%20Bhashya_Dayanand%20Mandal1-7%20all


Sayana Bhasyhyam

https://vedicheritage.gov.in/flipbook/Rigveda_Sayan_Bhasya_Vol_I/#book/127

Rig-Veda-Sanhita, the Sacred Hymns of the Brahmans, Volume 1

edited by F.M. Müller

Full book available for download

https://books.google.co.in/books?id=wqkdshWSjxkC

https://books.google.co.in/books?id=HLANAAAAIAAJ

Complete Sanskrit Pada Text
by F.M. Müller

https://books.google.co.in/books?id=CQyVExNgTbkC

https://www.aurobindo.ru/workings/matherials/rigveda/

https://www.hamarivirasat.com/scripture/india/vedas/rigveda/chapter-01/

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अ  आ  इ  ई  उ  ऊ  ए  ऐ  ओ  औ  अं  अः  ऋ  ॠ

क  ख ग घ  ङ      च छ ज  झ  ञ   ट ठ ड ढ ण  त  थ द  ध  न

प फ ब भ म    य र ल व श  ष  स  ह   क्ष   त्र ज्ञ


Books authored by Maharshi Dayananda Saraswati

http://www.vedicgranth.org/home/the-great-authors/maharshi

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