पंडित दीनदयाल उपाध्याय के विचार
एकात्म मानव दर्शन - सुरुचि प्रकाशन, केशव कुंज, झण्डेवाला, नयी दिल्ली - 1 1 0 0 5 5
एकात्म मानव दर्शन पर राष्ट्रीय संगोष्ठी
"स्वयं गांधी जी ने 'हिंद-स्वराज्य' लिखखर उसमें, स्वराज्य आने के बाद भारत का चित्र क्या होगा - इस पर अपने विचार रखे थे।"
"विश्र्व की प्रगति का अध्ययन कर लेने के बाद क्या हम भी उन्हें कुछ दे सकते हैं?"
"राष्ट्र की एक 'सामान्य इच्छा' नाम की कोई वास्तु होती है। उसको आधार बनाकर काम किया जाए तो सर्व सामान्य व्यक्ति को लगता है कि मेरे मन के अनुसार काम हो रहा है। उसमें से विचारोंका की अधिकतम एकता भी पैदा होती है।"
"हमारी राष्ट्रीयता का आधार भारत माता हैं, केवल भारत ही नहीं. माता शब्द हटा दीजिये तो भारत केवल जमीन का टुकड़ा मात्र बनकर रह जायेगा। "
" नैतिकता के सिद्धांतों को कोई एक व्यक्ति नहीं बनाता है, बल्कि इनकी खोज की जाती है।"
भारत में नैतिकता के सिद्धांतों को धर्म के रूप में माना जाता है - यानि जीवन के नियम.
जब स्वाभाव को धर्म के सिद्धांतों के अनुसार बदला जाता है, तो हमें संस्कृति और सभ्यता प्राप्त होते हैं.
यह जरुरी है कि हम 'हमारी राष्ट्रीय पहचान' के बारे में सोचते हैं, जिसके बिना आजादी' का कोई अर्थ नहीं है.
अपने राष्ट्रीय पहचान की उपेक्षा भारत के मूलभूत समस्याओं का प्रमुख कारण है.
अवसरवादिता ने राजनीति में लोगों के विश्वास को हिला दिया है.
सिद्धांतहीन अवसरवादी लोगों ने हमारे देश की राजनीति का बागडोर संभाल रखा है.
जब अंग्रेज हम पर राज कर रहे थे, तब हमने उनके विरोध में गर्व का अनुभव किया, लेकिन हैरत की बात है कि अब जबकि अंग्रेजों चले गए हैं, पश्चिमीकरण प्रगति का पर्याय बन गया है.
पश्चिमी विज्ञान और पश्चिमी जीवन शैली दो अलग अलग चीजें हैं. चूँकि पश्चिमी विज्ञान सार्वभौमिक है और हम आगे बढ़ने के लिए इसे अपनाना चाहिए, लेकिन पश्चिमी जीवनशैली और मूल्यों के सन्दर्भ में यह सच नहीं है.
पिछले 1000 वर्षों में जबरदस्ती या अपनी इच्छा से, चाहे जो कुछ भी हमने ग्रहण किया है - अब उसे ख़ारिज नहीं किया जा सकता.
मानवीय ज्ञान आम संपत्ति है.
आजादी सार्थक तभी हो सकती है जब यह हमारी संस्कृति की अभिव्यक्ति का साधन बन जाए.
मानवीय और राष्ट्रीय दोनों तरह से, यह आवश्यक हो गया है कि हम भारतीय संस्कृति के सिद्धांतों के बारे में सोचें.
भारतीय संस्कृति की मूलभूत विशेषता है कि यह जीवन को एक एकीकृत रूप में देखती है.
जीवन में विविधता और बहुलता है लेकिन हमने हमेशा उनके पीछे छिपी एकता को खोजने का प्रयास किया है.
हेगेल ने थीसिस, एंटी थीसिस और संश्लेषण के सिद्धांतों को आगे रखा, कार्ल मार्क्स ने इस सिद्धांत को एक आधार के रूप में इस्तेमाल किया और इतिहास और अर्थशास्त्र के अपने विश्लेषण को प्रस्तुत किया, डार्विन ने योग्यतम की उत्तरजीविता के सिद्धांत को जीवन का एकमात्र आधार माना; लेकिन हमने इस देश में सभी जीवों की मूलभूत एकात्म देखा है.
बीज की एक इकाई विभिन्न रूपों में प्रकट होती है - जड़ें, तना, शाखाएं, पत्तियां, फूल और फल. इन सबके रंग और गुण अलग-अलग होते हैं. फिर भी बीज के द्वारा हम इन सबके एकत्व के रिश्ते को पहचान लेते हैं.
धर्म के मौलिक सिद्धांत अनन्त और सार्वभौमिक हैं. हालांकि, उनके कार्यान्वयन का समय और स्थान परिस्थितियों के अनुसार भिन्न हो सकती है.
धर्म के लिए निकटतम समान अंग्रेजी शब्द 'जन्मजात कानून' हो सकता है. हालाँकि यह भी धर्म का पूरा अर्थ को व्यक्त नहीं करता है. चूँकि धर्म सर्वोच्च है, हमारे राज्य के लिए आदर्श 'धर्म का राज्य' होना चाहिए.
शक्ति अनर्गल व्यवहार में व्यय न हो बल्कि अच्छी तरह विनियमित कार्रवाई में निहित होनी चाहिए.
मुसलमान हमारे शरीर का शरीर और हमारे खून का खून हैं.
विविधता में एकता और विभिन्न रूपों में एकता की अभिव्यक्ति भारतीय संस्कृति की विचारधारा में रची- बसी हुई है.
संघर्ष सांस्कृतिक स्वाभाव का एक संकेत नहीं है बल्कि यह उनके गिरावट का एक लक्षण है.
मानव प्रकृति में दोनों प्रवृत्तियां रही हैं - एक ओर क्रोध और लालच तो दूसरी ओर प्रेम और बलिदान.
अंग्रेजी का शब्द रिलिजन धर्म के लिए सही शब्द नहीं है.
यहाँ भारत में, व्यक्ति के एकीकृत प्रगति को हासिल के विचार से, हम स्वयं से पहले शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा की चौगुनी आवश्यकताओं की पूर्ति का आदर्श रखते हैं.
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष (मानव प्रयास के चार प्रकार) की लालसा व्यक्ति में जन्मगत होता है और इनमें संतुष्टि एकीकृत रूप से भारतीय संस्कृति का सार है.
जब राज्य में समस्त शक्तियां समाहित होती हैं - राजनीतिक और आर्थिक दोनों - परिणामस्वरुप धर्म की गिरावट होता है.
एक राष्ट्र लोगों का एक समूह होता है जो एक लक्ष्य ',' एक आदर्श ',' एक मिशन' के साथ जीते हैं और एक विशेष भूभाग को अपनी मातृभूमि के रूप में देखते हैं. यदि आदर्श या मातृभूमि दोनों में से किसी का भी लोप हो तो एक राष्ट्र संभव नहीं हो सकता.
रिलिजन का मतलब एक पंथ या संप्रदाय कहै और इसका मतलब धर्म तो कतई नहीं.
धर्म एक बहुत व्यापक अवधारणा है जो समाज को बनाए रखने के जीवन के सभी पहलुओं से संबंधित है.
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पूर्ण आजीविका का लक्ष्य सामने रखकर ही हमें अन्य छः उत्पादन-साधनों का विचार करना चाहिए।
एकात्म मानव दर्शन - सुरुचि प्रकाशन, केशव कुंज, झण्डेवाला, नयी दिल्ली - 1 1 0 0 5 5
एकात्म मानव दर्शन पर राष्ट्रीय संगोष्ठी
"स्वयं गांधी जी ने 'हिंद-स्वराज्य' लिखखर उसमें, स्वराज्य आने के बाद भारत का चित्र क्या होगा - इस पर अपने विचार रखे थे।"
"विश्र्व की प्रगति का अध्ययन कर लेने के बाद क्या हम भी उन्हें कुछ दे सकते हैं?"
"राष्ट्र की एक 'सामान्य इच्छा' नाम की कोई वास्तु होती है। उसको आधार बनाकर काम किया जाए तो सर्व सामान्य व्यक्ति को लगता है कि मेरे मन के अनुसार काम हो रहा है। उसमें से विचारोंका की अधिकतम एकता भी पैदा होती है।"
"हमारी राष्ट्रीयता का आधार भारत माता हैं, केवल भारत ही नहीं. माता शब्द हटा दीजिये तो भारत केवल जमीन का टुकड़ा मात्र बनकर रह जायेगा। "
" नैतिकता के सिद्धांतों को कोई एक व्यक्ति नहीं बनाता है, बल्कि इनकी खोज की जाती है।"
भारत में नैतिकता के सिद्धांतों को धर्म के रूप में माना जाता है - यानि जीवन के नियम.
जब स्वाभाव को धर्म के सिद्धांतों के अनुसार बदला जाता है, तो हमें संस्कृति और सभ्यता प्राप्त होते हैं.
यह जरुरी है कि हम 'हमारी राष्ट्रीय पहचान' के बारे में सोचते हैं, जिसके बिना आजादी' का कोई अर्थ नहीं है.
अपने राष्ट्रीय पहचान की उपेक्षा भारत के मूलभूत समस्याओं का प्रमुख कारण है.
अवसरवादिता ने राजनीति में लोगों के विश्वास को हिला दिया है.
सिद्धांतहीन अवसरवादी लोगों ने हमारे देश की राजनीति का बागडोर संभाल रखा है.
जब अंग्रेज हम पर राज कर रहे थे, तब हमने उनके विरोध में गर्व का अनुभव किया, लेकिन हैरत की बात है कि अब जबकि अंग्रेजों चले गए हैं, पश्चिमीकरण प्रगति का पर्याय बन गया है.
पश्चिमी विज्ञान और पश्चिमी जीवन शैली दो अलग अलग चीजें हैं. चूँकि पश्चिमी विज्ञान सार्वभौमिक है और हम आगे बढ़ने के लिए इसे अपनाना चाहिए, लेकिन पश्चिमी जीवनशैली और मूल्यों के सन्दर्भ में यह सच नहीं है.
पिछले 1000 वर्षों में जबरदस्ती या अपनी इच्छा से, चाहे जो कुछ भी हमने ग्रहण किया है - अब उसे ख़ारिज नहीं किया जा सकता.
मानवीय ज्ञान आम संपत्ति है.
आजादी सार्थक तभी हो सकती है जब यह हमारी संस्कृति की अभिव्यक्ति का साधन बन जाए.
मानवीय और राष्ट्रीय दोनों तरह से, यह आवश्यक हो गया है कि हम भारतीय संस्कृति के सिद्धांतों के बारे में सोचें.
भारतीय संस्कृति की मूलभूत विशेषता है कि यह जीवन को एक एकीकृत रूप में देखती है.
जीवन में विविधता और बहुलता है लेकिन हमने हमेशा उनके पीछे छिपी एकता को खोजने का प्रयास किया है.
हेगेल ने थीसिस, एंटी थीसिस और संश्लेषण के सिद्धांतों को आगे रखा, कार्ल मार्क्स ने इस सिद्धांत को एक आधार के रूप में इस्तेमाल किया और इतिहास और अर्थशास्त्र के अपने विश्लेषण को प्रस्तुत किया, डार्विन ने योग्यतम की उत्तरजीविता के सिद्धांत को जीवन का एकमात्र आधार माना; लेकिन हमने इस देश में सभी जीवों की मूलभूत एकात्म देखा है.
बीज की एक इकाई विभिन्न रूपों में प्रकट होती है - जड़ें, तना, शाखाएं, पत्तियां, फूल और फल. इन सबके रंग और गुण अलग-अलग होते हैं. फिर भी बीज के द्वारा हम इन सबके एकत्व के रिश्ते को पहचान लेते हैं.
धर्म के मौलिक सिद्धांत अनन्त और सार्वभौमिक हैं. हालांकि, उनके कार्यान्वयन का समय और स्थान परिस्थितियों के अनुसार भिन्न हो सकती है.
धर्म के लिए निकटतम समान अंग्रेजी शब्द 'जन्मजात कानून' हो सकता है. हालाँकि यह भी धर्म का पूरा अर्थ को व्यक्त नहीं करता है. चूँकि धर्म सर्वोच्च है, हमारे राज्य के लिए आदर्श 'धर्म का राज्य' होना चाहिए.
शक्ति अनर्गल व्यवहार में व्यय न हो बल्कि अच्छी तरह विनियमित कार्रवाई में निहित होनी चाहिए.
मुसलमान हमारे शरीर का शरीर और हमारे खून का खून हैं.
विविधता में एकता और विभिन्न रूपों में एकता की अभिव्यक्ति भारतीय संस्कृति की विचारधारा में रची- बसी हुई है.
संघर्ष सांस्कृतिक स्वाभाव का एक संकेत नहीं है बल्कि यह उनके गिरावट का एक लक्षण है.
मानव प्रकृति में दोनों प्रवृत्तियां रही हैं - एक ओर क्रोध और लालच तो दूसरी ओर प्रेम और बलिदान.
अंग्रेजी का शब्द रिलिजन धर्म के लिए सही शब्द नहीं है.
यहाँ भारत में, व्यक्ति के एकीकृत प्रगति को हासिल के विचार से, हम स्वयं से पहले शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा की चौगुनी आवश्यकताओं की पूर्ति का आदर्श रखते हैं.
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष (मानव प्रयास के चार प्रकार) की लालसा व्यक्ति में जन्मगत होता है और इनमें संतुष्टि एकीकृत रूप से भारतीय संस्कृति का सार है.
जब राज्य में समस्त शक्तियां समाहित होती हैं - राजनीतिक और आर्थिक दोनों - परिणामस्वरुप धर्म की गिरावट होता है.
एक राष्ट्र लोगों का एक समूह होता है जो एक लक्ष्य ',' एक आदर्श ',' एक मिशन' के साथ जीते हैं और एक विशेष भूभाग को अपनी मातृभूमि के रूप में देखते हैं. यदि आदर्श या मातृभूमि दोनों में से किसी का भी लोप हो तो एक राष्ट्र संभव नहीं हो सकता.
रिलिजन का मतलब एक पंथ या संप्रदाय कहै और इसका मतलब धर्म तो कतई नहीं.
धर्म एक बहुत व्यापक अवधारणा है जो समाज को बनाए रखने के जीवन के सभी पहलुओं से संबंधित है.
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पूर्ण आजीविका का लक्ष्य सामने रखकर ही हमें अन्य छः उत्पादन-साधनों का विचार करना चाहिए।
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